________________ रूप से प्रतीत होता है कि इसके रचनाकाल तक जैन संघ में साम्प्रदायिक अभिनिवेश का पूर्णतः अभाव था। मंखलिगोशालक और उसकी मान्यताओं का उल्लेख हमें जैन आगम सूत्रकृतांग 10, भगवती 11 और उपासकदशांग में और बौद्ध परम्परा के सुत्तनिपात, दीघनिकाय के सामजफ्लसुत्त आदि में मिलता है। सूत्रकृतांग में यद्यपि स्पष्टतः मंखलिगोशालक का उल्लेख नहीं है, किंतु उसके आर्द्रक नामक अध्ययन में नियतिवाद की समालोचना अवश्य है। यदि हम साम्प्रदायिक अभिनिवेश के विकास की दृष्टि से विचार करें, तो भगवती का मंखलिगोशालक वाला प्रकरण सूत्रकृतांग और उपासकदशांग की अपेक्षा भी पर्याप्त परवर्ती सिद्ध होगा। सूत्रकृतांग, उपासकदशांग और पालित्रिपिटक के अनेक ग्रंथ मंखलिगोशालक के नियतिवाद को प्रस्तुत करके उसका खण्डन करते हैं, फिर भी जैन आगम ग्रंथों की अपेक्षा सुत्तनिपात में मंखलिगोशालक की गणना बुद्ध के समकालीन छः तीर्थकरों में करके उनके महत्त्व और प्रभावशाली व्यक्तित्व का वर्णन अवश्य किया गया है, किंतु पालित्रिपिटक के प्राचीनतम ग्रंथ सुत्तनिपात की अपेक्षा भी ऋषिभाषित में उसे अर्हत्ऋषि कहकर सम्मानित किया गया है। अतः, धार्मिक उदारता की दृष्टि से ऋषिभाषित की रचना पालित्रिपिटक की अपेक्षा भी प्राचीन है, क्योंकि किसी भी धर्मसंघ के सुव्यवस्थित होने के पश्चात् ही उसमें साम्प्रदायिक अभिनिवेश का विकास हो पाता है। ऋषिभाषित स्पष्ट रूप से यह सूचित करता है कि उसकी रचना जैनपरम्परा के साम्प्रदायिक अभिनिवेश आने के बहुत पूर्व हो चुकी थी। केवल आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध को छोड़कर शेष सभी जैन आगम-ग्रंथों में यह धार्मिक अभिनिवेश न्यूनाधिक रूप में अवश्य परिलक्षित होता है, अतः ऋषिभाषित केवल आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध को छोड़कर शेष सभी जैनागमों से प्राचीन सिद्ध होता है। भाषा, छन्दयोजना आदि की दृष्टि से भी यह आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध और सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध के मध्य में ही सिद्ध होता है। बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में प्राचीनतम ग्रंथ सुत्तनिपात है'५, किंतु उसमें भी वह उदारता नहीं है, जो ऋषिभाषित में है। त्रिपिटक साहित्य में ऋषिभाषित (7)