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कवन्ध-युद्ध वर्णन डिंगल काव्य की विशेपता है। कवि पीरदान ने भी उसका वर्णन किया है। सत्य तो यह है कि डिगल के चारणी काव्य मे वीररस का जो अनुपम चित्रण है वह पीरदान की कविता मे भी अपनी समस्त विशेषतानो को लिए हुए है। भगवान् के शील, शक्ति और सौन्दर्य वाले रूप मे से कवि प्रधानत उसके शौर्य का गायक है। वह तो अपने प्रभु को ससार के कर्मक्षेत्र मे सघर्ष-रत दिखाकर उसकी वीरता की पूजा करता है। तत्कालीन वातावरण में जब कि मुस्लिम शासको के अत्याचार प्रति की सीमा पार कर रहे थे, उस समय तेज पुज और शक्ति का अन्यतम रूप भगवान् ही भक्तो को विश्वास दिला सकता था । कवि ने मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जन-जीवन के मानस का स्पर्श करते हुए उनकी सुप्त चेतना को जागृत किया है तथा अपनी वीर वाणी से हमारी जडता दूर करने का प्रयत्न किया है।
पीरदान का भाव-पक्ष जितना प्रौढ है, उनका कला-पक्ष भी उतना ही श्रेष्ठ है। उसने उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारो के अतिरिक्त अनुप्रास का काफी प्रयोग किया है। अनुप्रास की छटा तो स्थान-स्थान पर दर्शनीय है
मोख खमो खम कंद, निगुण निरपख नरेसुर ।
निरालंव निरलेप, अभ्रम अछेप सुरेसुर ॥ छन्दों मे उसने दूहा, चौपाई, कवित्त, पद्धरी आदि का ही अधिक प्रयोग किया है। साथ ही डिंगल गीतो की भी रचना की है । चाहे पीरदान ने किसी काव्य-गुरु से शिक्षा ग्रहण की हो या न की हो, पर इसमे कोई सन्देह नही कि उसका काव्यशास्त्र का ज्ञान काफी है। भापा पर उसका सहज अधिकार है और वह कवि के भावो को उसके इगित अनुसार ही व्यक्त करती है।
आज के मानव में पीरदान जैसी आस्था और विश्वास नही । विज्ञान ने उसके समक्ष जिन नई मान्यताओं को प्रस्तुत किया है उनको वह पूर्ण रूपेण ग्रहण नही कर सका है। इस प्रकार आज का