Book Title: Patanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
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[३८] योगशास्त्र-ऊपरके वर्णनसे मालूम हो जाता है कि-योगप्रक्रियाका वर्णन करनेवाले छोटे बडे अनेक ग्रन्थ हैं । इन सब उपलब्ध ग्रन्थोंमें महर्षि-पतञ्जलिकृत योगशास्त्रका आसन ऊंचा है । इसके तीन कारण हैं-१ ग्रन्थकी संक्षिप्तता तथा सरलता, २ विपयकी स्पष्टता तथा पूर्णता, ३ मध्यस्थभाव तथा अनुभवसिद्धता । यही कारण है कि योगदर्शन यह नाम सुनते ही सहसा पातज्जल योगसूत्रका स्मरण हो पाता है । श्रीशंकराचार्यने अपने ब्रह्ममूत्रमाप्यमें योगदर्शनका प्रतिवाद करते हुए जो " अथ सम्यग्दर्शनाभ्युपायो योगः " ऐसा उल्लेख किया है, उससे इस बातमें कोई संदेह नहीं रहता कि उनके सामने पातजल योगशास्त्रसे भिन्न दूसरा कोइ योगशास्त्र रहा है । क्यों कि पातञ्जल योगशास्त्रका प्रारम्भ " अथ योगानुशासनम्" इस सूत्रसे होता है, और उक्त भाप्योल्लिखित वाक्यमें भी ग्रन्थारम्भसूचक अथ शब्द है, यद्यपि उक्त भाष्यमें " तन्नाप्नोति मनःस्वास्थ्यं प्राणायामैः कदायितं । प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्यात् चित्तविप्लवः ॥” इत्यादि उक्तिपे उमी वातको दोहराया है। श्रीयशोविजयजीने भी पातञ्जलयोगसूत्र की अपनी वृत्तिमें । १-३४) प्राणायामको योगका निश्चित साधन कह कर हठयोगका ही निरमन किया है।
१ ब्रह्ममून २-१-३ भाप्यगत |