Book Title: Patanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
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[ ११२] उसमें चैतन्यकी तरह दूसरे भी अनन्त गुण (शक्तियाँ) हैं, अर्थात् आत्मा अनंत गुणोंका आधार है । वह जो निर्गुण कहा जाता है उसका मतलब उसमें प्राकृतिक गुणोंके अभावसे है।
(३) आत्मा एकांत-निर्लेप नहीं है उसमें संसार-- अवस्थामें कथंचित् लेपका भी संभव है। ___ सूत्र ३१-भाष्यकारने प्रस्तुत सूत्रके भाष्यमें सांख्य मतके अनुसार ज्ञानको सत्त्वगुणका कार्य कह कर उसे प्राकृतिक बतलाया है, और कहा है कि निरावरण दशामें ज्ञान अनन्त हो जाता है जिससे उसके सामने सभी ज्ञेय (विषय) अल्प वन जाते हैं, जैसे कि आकाशके सामने जुगनू । इन दोनों बातोंका विरोध करते हुए वृत्तिकार जैन-मन्तव्यको इस प्रकार दिखाते हैं-ज्ञान प्राकृतिक अर्थात् अचैतन्य नहीं है किन्तु वह चैतन्यरूप है । यह बात नहीं कि ज्ञानके अनन्त हो जानेके समय सभी ज्ञेय अल्प हो जाते हैं, बल्कि ज्ञानकी अनन्तता ज्ञेयकी अनन्तता पर ही अवलम्बित है अर्थात् ज्ञेय अनन्त हैं । अतएव उन सवको जाननेवाला निरावरण ज्ञान भी अनन्त कहलाता है । ___ सूत्र ३३-इसकी व्याख्या में भाष्यकारने क्रमका स्वरूप दिखाते हुए कहा है कि नित्यता दो प्रकारकी है । (१) कूटस्थ-नित्यता अर्थात् अपरिणामि तत्व । (२) परिणामि