Book Title: Patanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 234
________________ [ १३२ ] शास्त्रका आश्रय न करनेवाले संविग्न पुरुषोंने जिसका आचरण किया हो वह अन्ध परम्परा मात्र है, जीतव्य - बहार नहीं । क्रिया बिल्कुल न करनेकी अपेक्षा कुछ न कुछ क्रिया करने को ही शास्त्र अच्छा कहा गया है, इसका मतलब यह नहीं कि शुरू से अविधिमार्गमें ही प्रवृत्ति करना, किन्तु उसका भाव यह है कि विधिमार्ग में प्रवृत्ति करने पर भी अ गर असावधानीवश कुछ भूल हो जाय तो उस भूलसे डर कर बिल्कुल विधिमार्गको ही नहीं छोड देना किन्तु भूल सुधारनेकी कोशीस करते रहना । प्रथमाभ्यासमें भूल हो जानेका सम्भव हैं पर भूल सुधारलेनेकी दृष्टि तथा प्रयत्न हो वो वह भूल भी वास्तवमें भूल नहीं है । इसी अपेक्षासे - शुद्ध क्रियाको भी शुद्ध क्रियाका कारण कहा है। जो व्यक्ति विधिका बहुमान न रख कर अविधिक्रिया किया करता है उसकी अपेक्षा तो विधिके प्रति बहुमान रखनेवाला पर कुछ भी न करनेवाला अच्छा है || मूल विषयका उपसंहार करते हैं ५ गाथा १७ - प्रस्तुत विषयमें प्रासंगिक विचार इतना काफी है । स्थान आदि पूर्वोक्त पॉच योगोंमें जो प्रयत्नशील हों उन्हींके चैत्यवन्दन आदि अनुष्ठानको सदनुष्ठानरूप समझना चाहिए ||

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