Book Title: Patanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
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[ १३८] _है, इस सिद्धिसे केवलज्ञान और केवलज्ञानसे अयोग नामक योग तथा परम निर्वाण क्रमशः होता है ।।
खुलासा-मोहकी रागद्वेपरूप वृत्तियाँ पौगलिक अध्यासका परिणाम है और निरालम्बन ध्यानका विषय शुद्ध चैतन्य है। अतएव मोह और निरालम्बन ध्यान ये दोनों परस्पर विरोधी तत्त्व हैं। निरालम्बन ध्यानका प्रारम्भ
हुआ कि मोहकी जड कटने लगी, जिसको जैनशास्त्रमें क्षप__ कश्रेणीका आरम्भ कहते हैं । जब उक्त ध्यान पूर्ण अवस्था
तक पहुँचता है तब मोहका पाशबंधन सर्वथा टूट जाता है, यही क्षपकश्रेणीकी पूर्णाहुति है। महर्षि पतञ्जलिने जिस
ध्यानको सम्प्रज्ञात कहा है वही जैनशास्त्रमें निरालम्बन ___ ध्यान है । क्षपकश्रेणीके द्वारा सर्वथा वीतराग दशा प्रकट
हो जाने पर आत्मतत्त्वका पूर्ण साक्षात्कार होता है, जो जैनशास्त्रमें केवलज्ञान और महर्षि पतञ्जलिकी भाषामें असम्प्रज्ञात योग कहलाता है। केवलज्ञान हुआ कि मानसिक वृत्तियाँ नष्ट हुई और पीछे एक ऐसी प्रयोग नामक योगावस्था आती है जिससे रहे-सहे वृत्तिके वीजरूप सूक्ष्म संस्कार भी जल जाते हैं, यही विदेह मुक्ति या परम
ण है ।।
॥ समाप्त ॥