Book Title: Patanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 217
________________ [ ११७] रिने स्वयं योगबिंदुमें अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय इन पाँच योगोंकी संपत्ति चारित्रमें ही मानी है । यह प्रश्न उठ सकता है कि जब चारित्रीमें ही योगका संभव है तब निश्चयदृष्टिसे चारित्रहीन किन्तु व्यवहारमात्रसे श्रावक या साधुकी क्रिया करनेवालेको उस क्रियासे क्या लाभ. इसका उत्तर ग्रंथकारने यही दिया है कि" व्यवहार-मात्रसे जो क्रिया अपुनर्वधक और सम्यग्दृष्टिके द्वारा की जाती है वह योग नहीं किन्तु योगका कारण होनेसे योगका वीजमात्र है । जो अपुनर्वधक या सम्यग्दृष्टि नहीं है किन्तु सकृद्धधर्क या द्विबंधक आदि है उसकी व्यावहारिक क्रिया भी योगवीजरूप न होकर योगाभास अर्थात् मिथ्या-योगमात्र है । अध्यात्म आदि उक्त योगोंका समावेश इस ग्रंथमें वर्णित स्थान प्रादि योगामें इस प्रकार है-अध्यात्मके अनेक प्रकार हैं । देव-सेवारूप अध्यात्मका समावेश स्थानयोगमें, जपरूप अध्यात्मका समावेश ऊर्ण-योगमें और तत्त्वचिंतनरूप अध्यात्मका समावेश अर्थयोगमें होता है । भावनाका भी समावेश उक्त ५ जो मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति एक वार बांधनेवाला हो वह सकद्धन्धा या सकृदावर्तन कहलाता है और जो वैसी स्थिति दो वार बांधनेवाला हो वह द्विवन्धक या द्विरावर्तन कहलाता है।

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