Book Title: Patanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
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[ १२२] चैत्यवंदन एक प्रारम्भिक अनुष्ठान है, इसलिए यह विचारना चाहिये कि वह अमृतानुष्ठानका रूप कत्र धारण करता है और त हेतु-अनुष्ठानका रूप कव धारण करता है।
जब चैत्यवंदन-क्रियामें स्थान, वर्ण, अर्थ और आलंबन इन चारों योगोंका सम्बन्ध हो तब वह अमृतानुष्ठान है और जब उसमें स्थान, वर्ण-योगका तो सम्बन्ध हो किन्तु अर्थ, आलम्बन-योगका सम्बन्ध न हो पर उनकी रुचि मात्र हो तब वह तद्धेतु-अनुष्ठान है।
जब विधिके अनुसार आसन जमा कर शुद्ध उच्चारणपूर्वक सूत्र पढ़ कर चैत्यवंदन किया जाता है और साथ ही उन सूत्रोंके अर्थ (तात्पर्य) तथा आलम्बनमें उपयोग रहता है तब वह चैत्यवंदन उक्त चारों योगोंसे संपन्न होता है ऐसा चैत्यवंदन भावक्रिया है, क्योंकि उसमें अर्थ तथा
आलंबन योगमें उपयोग रखने रूप ज्ञान-योग वर्तमान है । यथाविधि आसन बांध कर शुद्ध रीतिसे सूत्र पढ़ कर चैत्यवंदन किया जाता हो पर उस समय सूत्रके अर्थ तथा बालंबनमें उपयोग न हो तो वह चैत्यवंदन ज्ञानयोगशून्य होनेके कारण द्रव्यक्रियारूप है, ऐसी द्रव्यक्रियामें अर्थ, आलंवन-योगका अभाव
१ चैत्यवंदनकी चार स्तुतियोंमें पहलीका आलम्बन विशेष तीर्थकर, दूसरीका सामान्य तीर्थकर, तीसरीका प्रवचन और चौथीका शासनदेवता है ।
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