Book Title: Patanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 228
________________ [१२६] इससे वैसे आत्माओंको चैत्यवन्दन न तो सिखाना चाहिए और न कराना चाहिए। चैत्यवन्दनके अधिकारकी इस चर्चासे अन्य क्रियाओंके अधिकारका निर्णय भी स्वयं करलेना चाहिए । ____ जो लोग ऐसी शङ्का करते हैं कि अविधिसे भी चैत्यवन्दन आदि क्रिया करते रहनेसे दूसरा फायदा हो या नहीं पर तीर्थ चालू रहनेका लाभ तो अवश्य है । अगर विधिका ही खयाल रक्खा जाय तो वैसा अनुष्ठान करनेवाले इनेगिने अर्थात् दो चार ही मिलेंगे और जब वे भी न रहेंगे तब क्रमशः तीर्थका उच्छेद ही हो जायगा। इसलिए कमसे कम तीर्थको कायम रखने के लिए भी अविधि-अनुष्ठानका आदर क्यों न किया जाय ? इसका उत्तर उन शङ्कावालोंको ग्रन्थकार देते हैं गाथा १४-अविधि अनुष्ठानकी पुष्टिमें तीर्थके अनुच्छेदकी बातका सहारा लेना ठीक नहीं है, क्योंकि अविधि चालु रखनेसे ही असमञ्जस अर्थात् शास्त्रविरुद्ध विधान जारी रहता है, जिससे शास्त्रोक्त क्रियाका लोप होता है यह लोप ही तीर्थका उच्छेद है ॥ खुलासा-अविधिक पक्षपाती अपने पक्षकी पुष्टिमें यह दलील पेश करते हैं कि अविधिसे और कुछ नहीं तो तीर्थकी रक्षा होती है, परन्तु उन्हें जानना चाहिए कि तीर्थ

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