Book Title: Patanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
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उद्देश्य यही है कि महर्षि पतञ्जलिकी दृष्टिविशालता इतनी अधिक थी कि सभी दार्शनिक व साम्प्रदायिक विद्वान् योगशास्त्र के पास आते ही अपना साम्प्रदायिक अभिनिवेश भूल गये और एकरूपताका अनुभव करने लगे। इसमें कोई संदेह नही कि - महर्षि पतञ्जलिकी दृष्टि - विशालता उनके विशिष्ट योगानुभवका ही फल है, क्योंकि जब कोई भी मनुष्य शब्दज्ञानकी प्राथमिक भूमिकासे आगे बढ़ता है तब वह शब्दकी पूंछ न खीचकर चिन्ताज्ञान तथा भावनाज्ञानके उत्तरोत्तर अधिकाधिक एकतावाले प्रदेशमें अभेदानंदका अनुभव करता है ।
आचार्य हरिभद्रकी योगमार्ग में नवीन दिशा - श्रीहरिभद्र प्रसिद्ध जैनाचायों में एक हुए । उनकी बहुश्रुतता. सर्वतोमुखी प्रतिभा, मध्यस्थता और समन्वयशक्तिका पूरा परिचय करानेका यहाॅ प्रसंग नहीं है । इसके - लिये जिज्ञासु महाशय उनकी कृतियोंको देख लेवें । हरिभद्रहरिकी शतमुखी प्रतिभा के स्रोत उनके बनाये हुए चार
१ शब्द चिन्ता तथा भावनाज्ञानका स्वरूप श्रीयशोविजयजीने अध्यात्मोपनिषद् में लिखा है, जो आध्यात्मिक लोगोंको देखने योग्य है अध्यात्मोपनिषद् लो, ६५, ७४ ।
२ द्रव्यानुयोगविषयक - धर्म संग्रहणी आदि १, गणितानुयोगविषयक - क्षेत्रसमास टीका आदि २, चरकरणानुयोग