Book Title: Patanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
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[८] मैत्री आदि चार भावनाओंको चित्तशुद्धिका उपाय मानता है, और मैत्रीका अर्थ उसमें विशाल है। सूत्रमें सुखी प्राणिको ही मैत्रीभावनाका विषय बतलाया है, पर जैनाचार्य प्राणिमात्रको मैत्रीका विषय बतलाते हैं । इसके सिवाय उपाध्यायजीने पोडशकप्रकरणके चतुर्थ और तेरहवें पोडशकके अनुसार चारों भावनाओंके भेद और उनका स्वरूप भी बतलाया है। ___ सूत्र ३४-जैनशास्त्र प्राणायामको चित्तशुद्धिका पुष्ट साधन नहीं मानता, क्योंकि उसको हठपूर्वक करनेसे मन स्थिर होनेके बदले व्याकुल हो जाता है।
सूत्र ४६-चित्तका ध्येयविषयके समानाकार बन जाना उसकी समापत्ति है। जब ध्येय स्थूल हो तब सवितर्क, निर्वितर्क और ध्येय सक्षम हो तव सविचार. निर्विचारः इस तरह समापत्तिके चार भेद हैं, जो सभी सवीज ही हैं और संप्रज्ञात कहलाते हैं । जैनशास्त्रमें समापत्तिका मतलब उन भावनाओंसे है जो भावनायें चित्तमें एकाग्रता उत्पन्न करती *और जिनका अनुभव शुक्लध्यानवाले ही आत्मा करते हैं।
ह. स्थूल द्रन्यकी भावना सवितर्क समापत्ति,
हित स्थूल द्रव्यकी भावना निर्वितर्क समापत्ति, पर्यायसहित सूक्ष्म द्रव्यकी भावना सविचार समापत्ति, और पायरहित सूक्ष्म द्रव्यकी भावना निर्विचार समापत्ति है ।