Book Title: Patanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
View full book text
________________
[१०० ]
ही जैनशास्त्र भी अत्यन्त दुष्कर ऐसे वाह्य तप करनेकी सम्मति वहांतक ही देता है, जहांतक कि आभ्यन्तर तप अर्थात् कपायमन्दताकी वृद्धि हो, और ध्यानकी पुष्टि हो ।
जैनशास्त्र अनुसार ईश्वरप्रणिधानका मतलब यह है कि प्रत्येक अनुष्ठान करते समय शास्त्रको दृष्टिमम्मुख रख करके तद्द्वारा उसके आदि उपदेशक वीतराग प्रभुको हृदयमें स्थान देना |
-
सूत्र ४ – अस्मिता आदि चारों क्लेशोंकी जड अविद्या है, और चारों क्लेश प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार इस प्रकारकी चार चार अवस्थावाले हैं । इस विषयका समन्वय जैनपरि - भाषामें इस प्रकार है -विद्यादि पाँचों क्लेश मोहनीयकर्मके
दकिभाव - विशेषरूप हैं । श्रनाधाकाल पूर्ण न होनेके कारण जबतक कर्मदलिकका निषेक ( रचनाविशेष ) न हो Taarat कर्मावस्थाको प्रसुप्तावस्था समझना चाहिये । कर्मका उपशम और क्षयोपशम भाव उसकी तनुत्व अवस्था है | अपनी विरोधी प्रकृतिके उदयादि कारणोंसे किसी कर्मप्रकृतिका उदय रुक जाना वह उसकी विच्छिन्न अवस्थां | उदयावलिकाको प्राप्त होना कर्मकी उदार अवस्था है ।
सूत्र - सूत्रकारने सूत्र ५ से ६ तकमें पाँच क्लेशोंके 1 कहे हुए हैं उनका जैनप्रक्रिया के अनुसार समन्वय २ प्रकार है