Book Title: Patanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
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[१७] करते हैं, और ( ग ) एकधर्मका अर्थात् सर्वज्ञपनका सर्वथा स्वीकार करते हैं। ___ (क ) सत्त्वगुण जो जड प्रकृतिका अंश है वह तथा जगत्कर्वत्व उन दो धर्नाका सम्बन्ध ईश्वरमें युक्तिसंगत न होनेसे जैनदर्शनको मान्य नहीं है। __(ख ) एकत्व शब्दके संख्या और सादृश्य ये दो अर्थ होते हैं। जैनशास्त्र ईश्वरकी एक संख्या नहीं मानता, रह सभी मुक्त प्रात्माओंको ईश्वर मानता है । अतएव उसके अनुसार इश्वरमें एकत्वका मतलब सदृशतासे है। जव ईश्वर कोई एक ही व्यक्ति नहीं है तब जैनप्रक्रियाके अनुसार यह भी सिद्ध है कि अनादिशुद्धता मुक्तजीवोंके प्रवाहमें ही घट सकती है, एक व्यक्तिमात्रमें नहीं। अनुग्रहकी इच्छा जो रागरूप होनेसे द्वेष सहचरित होनी चाहिये उसका तो ईश्वर में सम्भव ही नहीं हो सकता, अतएव जैनशास्त्र कहता है कि ईश्वरोपासनाके निमित्तसे योगी जो सदाचार लाभ करता है वही ईश्वरका अनुग्रह समझना चाहिये।
ईश्वरमें सर्वज्ञत्व जैनशास्त्रको वैसा ही मान्य है जैसा कि योगदर्शनको, पर जैनमतकी विशेषता यह है कि सर्वज्ञत्व दोपोंके नाशसे उत्पन्न होता है। अतएव वह नित्यमुक्तताका साधक नहीं हो सकता।
सूत्र ३३---उपाध्यायजी कहते हैं कि-जैनशास्त्र भी