Book Title: Patanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
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[१३] पाँच भूमिकाओंमें विभक्त करके हर एक भूमिकाके लक्षण बहुत स्पष्ट दिखाये हैं । और जगह जगह जैन परिभाषाके साथ बौद्ध तथा योगदर्शनकी परिभाषाका मिलान करके परिभाषाभेदकी दिवारको तोडकर उसकी ओटमें छिपी हुई योगवस्तुकी भिन्नभिन्नदर्शनसम्मत एकरूपताका स्फुट प्रदर्शन कराया है । अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय ये योगमार्गकी पॉच भूमिकायें हैं। इनमेंसे पहली चारको पतंजलि संप्रज्ञात, और अन्तिम भूमिकाको असंग्रज्ञात कहते हैं । यही संक्षेपमें योगविन्दुकी वस्तु है । __योगदृष्टिसमुच्चयमें आध्यात्मिक विकासके क्रमका वर्णन योगबिन्दुकी अपेक्षा दूसरे ढंगसे है। उसमें आध्यात्मिक विकासके प्रारंभके पहलेकी स्थितिको अर्थात् अचरमपुद्गलपरावर्त्तपरिमाण संसारकालीन आत्माकी स्थितिको अोषदृष्टि कहकर उसके तरतम् भावको अनेक दृष्टांत द्वारा समझाया
१ योगबिंदु, ३१, ३५७, ३५६, ३६१, ३६३, ३६५ । २ "यत्सम्यग्दर्शनं बोधिस्तत्प्रधानो महोदयः ।
लत्त्वोऽस्तु बोधिसत्त्वस्तद्धन्तैपोऽन्वर्थतोऽपि हि ॥२७३। वरबोधिसमेतो वा तीर्थकृद्यो भविष्यति । तथाभव्यत्वतोऽसौ वा बोधिसत्त्वः सतां मतः"॥२७४।।
योगविन्दु । ३ देखो योगविंदु ४५८. ४२० ।