Book Title: Patanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
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[६४] है, और पीछे आध्यात्मिक विकासके आरंभसे लेकर उसके अंततकमें पाई जानेवाली योगावस्थाको योगदृष्टि कहा है। इस योगावस्थाकी क्रमिक वृद्धिको समझानेके लिये संक्षेपमें उसे आठ भूमिकाओं में बाँट दिया है। वे आठ भूमिकायें उस ग्रन्थमें आठ योगदृष्टिके नामसे प्रसिद्ध हैं । इन आठ दृष्टिोंका विभाग पातंजलयोगदर्शन-प्रसिद्ध यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि आठ योगांगोंके आधार पर किया गया है, अर्थात् एक एक दृष्टि में एक एक योगांगका सम्बन्ध मुख्यतया बतलाया है। पहली चार दृष्टिऑ योगकी प्रारम्भिक अवस्थारूप होनेसे उनमें अविद्याका अल्प अंश रहता है । जिसको प्रस्तुत ग्रंथमें अवेद्यसंवेद्यपद कहा है। अगली चार दृष्टिोंमें अविद्याका अंश बिल्कुल नहीं रहता। इस भावको श्राचार्यने वेद्यसंवेद्यपद शब्दसे जनाया है। इसके सिवाय प्रस्तुत ग्रंथमें पिछली चार दृष्टियोंके समय पाये जानेवाले विशिष्ट प्राध्यात्मिक विकासको इन्छायोग, शास्त्रयोग
और सामर्थ्ययोग ऐसी तीन योगभूमिकाओं में विभाजित करके उक्त तीनों योगभूमिकाओंका बहुत रोचक वर्णन किया है।
१ देखो-योगदृष्टिसमुच्चय १४ ।।
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७३। २-१२ ।
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