Book Title: Patanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
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[६६] पाँच भूमिकाओंकी अन्तर्गत भिन्न भिन्न स्थितिओंका वर्णनकरके योगके अस्सी भेद किये हैं, और उन सबके लक्षण वतलाये हैं, जिनको ध्यानपूर्वक देखनेवाला यह जान सकता है कि मैं विकासकी किस सीढ़ीपर खडा हूँ । यही योगविशिकाकी संक्षिप्त वस्तु है।
उपसंहार-विषयकी गहराई और अपनी अपूर्णताका खयाल होते हुए भी यह प्रयास इस लिये किया गया है कि अबतकका अवलोकन और स्मरण संक्षेपमें भी लिपिवद्ध हो जाय, जिससे भविष्यत्में विशेष प्रगति करना हो तो इस विषयका प्रथम सोपान तयार रहे। इस प्रवृत्तिमें कई मित्र मेरे सहायक हुए हैं जिनके नामोल्लेख मानसे मैं कृतज्ञता प्रकाशित करना नहीं चाहता। उनकी आदरणीय स्मृति मेरे हृदयमें अखंड रहेगी।
पाठकोंके प्रति एक मेरी सूचना है। वह यह कि इस निबंध अनेक शास्त्रीय पारिभापिक शब्द आये हैं। सासकर अन्तिम भागमें जैन-पारिभाषिक शब्द अधिक है, जो बहुतोंको कम विदित होंगे उनका मैंने विशेष खुलासा नहीं किया है, पर खुलासावाले उस उस ग्रन्थके उपयोगी स्थलोंका निर्देश कर दिया है, जिससे विशेपजिज्ञासु मूलग्रन्थद्वारा ही ऐसे कठिन शब्दोंका सुलासा कर सकेंगे।