Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
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पर सुरक्षित है। इसके अतिरिक्त दण्डी जी ने अलवर नरेश को रघुवंश, विदुरप्रजागर और तर्कसंग्रह आदि ग्रन्थ पढ़ाये । गुरुवर के आशीर्वाद से श्री विनयसिंह अच्छे संस्कृतज्ञ और संस्कृतभाषण में भी कुशल होगए थे
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एक दिन दण्डी जी तो यथासमय पाठ पढ़ाने के लिए उपस्थित होगए किन्तु श्री विनयसिंह उपस्थित नहीं हुए । पूर्व प्रतिज्ञा अनुसार दण्डी जी ने अलवर से जाने का निश्चय कर लिया। श्री विनयसिंह ने २५०० रुपये की सुवर्ण मुद्रा देकर गुरुवर को सत्कारपूर्वक विदा किया। दण्डी जी अलवर से पुन: शूकरक्षेत्र (सोरों) आगए । मथुरा - निवास (१८४५- ६८ ई०)
पाठशाला
दण्डी जी १८४५ ई० ग्रीष्मकाल में सोरों से मथुरा पधारे। ये प्रथम गतश्रम नारायण के मन्दिर में ठहरे। लगभग एक वर्ष के पश्चात् दण्डी जी ने मथुरा के एक रईस श्री केदारनाथ खत्री से २ रुपये मासिक किराये पर एक घर ले लिया। जो गतश्रम नारायण के मन्दिर से १६-१७ दुकानें होली दरवाजे की ओर विद्यमान था । यही दण्डी जी की पाठशाला थी । दण्डी जी यहां लगभग २२ वर्ष तक व्याकरणशास्त्र पढ़ाते रहे । स्वामी दयानन्द ने भी इसी पाठशाला में विद्या- अध्ययन किया था ।
उन दिनों सौ से अधिक संस्कृत - अध्यापक मथुरा में संस्कृत पढ़ाते थे । यह एक लघु काशी कहलाती थे । श्री केशवदेव आदि कितने ही संस्कृत - अध्यापक दण्डी जी के शिष्य बन गए और उनसे व्याकरण - शास्त्र पढ़ने लगे थे ।
अष्टाध्यायी का लोप
अष्टाध्यायी के प्रवक्ता आहिक मुनि पाणिनि का काल महाभारत से लगभग ३०० वर्ष पश्चात् का है। अनुमानत: १५०० ई० पू० महामुनि पतंजलि ने पाणिनीय अष्टाध्यायी पर व्याकरण महाभाष्य' नामक ग्रन्थरत्न की रचना की थी। पाणिनि-काल से लेकर १६०० ई० पूर्व तक अष्टाध्यायी शास्त्र का पठन-पाठन चलता रहा। कुछ समय पश्चात् शब्द - सिद्धि के लिए प्रक्रिया ग्रन्थ लिखे गए उनका अध्ययन केवल शब्द - सिद्धि के लिए ही किया जाता था किन्तु पं० भट्टोजि दीक्षित (१५९८ ई०) ने अष्टाध्यायी की प्राचीन शिक्षा-पद्धति का लोप करके नई शिक्षा-परिपाटी चलाई और उसके प्रचारार्थ वै०सि० कौमुदी नामक ग्रन्थ की रचना की ।
अष्टाध्यायी की खोज
महावैयाकरण आहिकमुनि पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी नामक रचना में सम्पूर्ण व्याकरणशास्त्र को एक सहस्र अनुष्टुप् छन्दों में बान्ध दिया था । अष्टाध्यायी के अक्षरों की गणना करके अनुष्टुप् छन्द में विद्यमान ३२ अक्षरों से भाग करने पर अष्टाध्यायी का एक सहस्र अनुष्टुप् छन्दों का परिमाण बनता है। इस प्रकार किसी ग्रन्थ की
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