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नाटक) पंचास्तिकायसमयसार प्रवचनसारादि ग्रंथोंपर परमोत्तम टीकायें रची हैं. इनके शिवाय इस पंचास्तिकाय समयसारपर एक टीका देवेजितनामा आचार्यनें बनाई हैं तीसरी टीका - विक्रम संवत् १३१६ प्रसिद्ध ग्रंथकार वा टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्यने बनायी है चौथी टीका सं. १७७५ में श्रीभट्टारक ज्ञानचन्द्रजी बनायी है और पांचवीं टीका बालचन्द्रमुनिनें कर्णाटकभाषामें बनायी है । अन्वेषण करनेसे इस ग्रंथपर और भी अनेक टीकायें प्राप्त होना संभव है. इनके पश्चात् भाषाकारोंका नंबर है सो इसका एक भाषानुवाद तो वि. सं. १७१६ में पंडित राजमल्लजीने किया है. दूसरा भाषानुवाद वि. सं. १७०० के लगभाग पंडित हेमराजने ३५०० श्लोकोंमें किया है. तीसरा भाषापद्यानुवाद वि. सं. १७१८ में जहानावादनिवासी कवि हीराचंदजीने २२०० श्लोंकोमें बनाया है. चौथा भाषापद्यानुवाद वि. सं. १८९१ में विधिचंदजीनें १४०० श्लोकोंमें किया है ।
हमको उक्त ग्रन्थोंमेंसे १ प्रति अमृतचन्द्रजी सूरिकृत संस्कृतटीकाकी पदच्छेद छाया व टिप्पणीसहित प्राप्त और तीन प्रति पंडित हेमराजजीकृत व्रजभाषानुवादकी प्राप्त हुई. जिनमें से १ प्रति विक्रम सं. १७४१ की लिखी हुई देवरीनिवासी भाई नाथूराम प्रेमीसे प्राप्त हुई. दूसरी प्रति विना संवत् मितीकी लिखी खुरईनिवासी पंडित खेमचंद्रजी अध्यापक जैनपाठशाला ईडरसे प्राप्त हुई. तीसरी प्रति सं. १९४१ की लिखी हुई वीरमगांव निवासी दोसी बेलसी वीरचंदसे प्राप्त हुई. यद्यपि लेखक महाशयोंके प्रमादसे तीनों ही प्रतियें अशुद्ध हैं, परन्तु पहिलीप्रति दूसरी तीसरी से बहुत ही शुद्ध है ।
यद्यपि पंडित हेमराजजीकृत यह बचनिका प्राचीन ब्रजभाषापद्धति के अनुसार बहुत ही उत्तम और बालबोध है परन्तु आजकलके नवीन हिंदीभाषाके संस्कारक महाशयोंकी दृष्टिमें यह व्रजभाषा समीचीन नहिं समझी जाती है, तथा सर्वदेशीय भी नहिं समझी जाती, इसकारण मैंने पंडित हेमराजकृत भाषा - नुवादके अनुसार ही नयी सरल हिंदी भाषा में अविकल अनुवाद किया है. अर्थात् संस्कृत के प्रत्येक पदके पीछें 'कहिये, कहिये, शब्दको उठाने और संस्कृत पदोंको कोष्टकमें रखनेके अतिरिक्त अपनी ओरसे अर्थ में कुछ भी न्यूनाधिक नहिं किया हैं । किन्तु जहां २ मूलपाठ और अर्थमें लेखकोंकी भूलसे कुछ छूट गया है तथा अन्यका अन्य हो गया है, उसको मैंने संस्कृतटीकाके अनुसार शुद्ध करके लिखा है । पंचास्तिकायका विषय आध्यात्मिक होनेके कारण कठिन है, इसलिये तथा प्रतियों की अशुद्धता के कारण प्रमादवशतः मुझ सरीखे अल्पज्ञद्वारा अशुद्धियां रहजाना संभव है इस कारण विद्वज्जनोंसे प्रार्थना है, कि वे उन्हें शुद्ध करके पढ़ें ।
स्वर्गीय तत्त्वज्ञानी श्रीमान् रायचन्द्रजीद्वारा स्थापित श्रीपरमश्रुतप्रभावकमंडलकी ओरसे इस ग्रन्थका जीर्णोद्धार हुआ है, अतएव उक्त मंडलके उत्साही सभासद और प्रबन्धकर्ताओं को इस प्रस्तावना के अन्तमें कोटिशः धन्यवाद दिये जाते हैं, और श्रीजीसे प्रार्थना की जाती है, कि वीतरागदेवप्रणीत उच्चश्रेणी के तत्त्वज्ञानका इच्छित प्रसार करनेमें उक्त मंडल कृतकार्य होनेको शक्तिवान् होवै ।
श्रीमान् शेठ माणिकचन्दपानाचन्दजी जोहरीने अपने भतीजे स्वर्गीय शेठ प्रेमचन्दमोतीचन्दजीके स्मरणार्थ इस प्रन्थके प्रकाशनमें ३५०) रु० की सहायता देकर विशेष उत्तेजना दी है, अतएव मंडलकी ओर से उक्त विद्योत्साही शेठजी भी विशेष धन्यवाद के पात्र हैं ।
मुम्बयी ता० १०-१२ – १९०४ ई०
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जैन समाजका दास, पन्नालाल वाकलीवाल.
१ पिटर्सन साहब की रिपोर्ट चौथी नं० १४४२ का ग्रंथ ।
२ लाहोर निवासी बाबू ज्ञानचन्द्रजीने बुधजनसतसयी और बुधजनविलास आदि के कर्त्ता पं० बुधजनजी यही थे. ऐसा प्रगट किया है ।