Book Title: Painnay suttai Part 3 Author(s): Punyavijay, Amrutlal Bhojak Publisher: Mahavir Jain VidyalayPage 91
________________ ४८ पाययटिप्पणगलमेयं जोयेणसयं असीयं अंतो ओगाहितूण दीवम्म । सुवरं तु सपरिधिं अब्भंतरमंडलं रविणो ॥ २०४ ॥ तीसाणि तिणि जोयणसताणि ओगाहितूण लवणम्मि । तस्सुं परं सपरिधिं बाहिरगं मंडलं रविणो ॥ २०५ ॥ तिण्णेवसतसहस्सा पण्णरस य होंति जोयणसहस्सा । उगुणा उति परिरयो अभितरमंडले रविणो ॥ २०६ ॥ " विक्खंभ वग्ग दसगुण करणि " [गा० १९६] त्ति परिरयो आणेतव्वो त्ति । सेसा पागडत्थाओ गाहाओ ॥ २०२ तः २०६ ॥ तिण्णेव सयसहस्सा अट्ठारस होंति जोयणसहस्सा । तिणि सता पण्णारा बाहिरए मंडले रविणो ॥ २०७ ॥ दस चैव मंडलोई अभितर - बाहिरा रवि-ससीणं । सामण्णाणि तु णियमा पैंत्तेयं पंच चंदस्स ॥ २०८॥ अभित तो पंच मंडलाणि बाहिरतो य पंच ससि-सूराणं सामाणाणि । मझिलाणं पंच पत्तेयं चंदस्स असामण्णाणि ॥ २०८ ॥ चंदंतरे असु अभितर - बाहिरेसु सूरस्स । बारस बारस मग्गा, छसु तेरस तेरस हवंति ॥ २०९ ॥ एत्थ करणगाहा चंद विप्पं एक्कं सूरविकप्पेण भाजये णियमा । जं हवति भागलद्धं सूरविकप्पा उ ते होंति ॥ २१० ॥ १. आसीत जोयणसतं अंतो जे० खं० ॥ २ तस्स परिधी सपरिधी जे० खं० ॥ ३. परिधी तस्स सपरिधी जे० ॥ ४. 'रसहिं ऊणिगा य नउतीओ। एसा परिरयरासी अभि° जे० खं० ॥ ५. लागि अभितर बाहिराणि चंदस्स । ससि-सूराणं नियमा जे० खं० ॥ ६. पत्तेया होंति साणि सूर्य ॥ ७. अत्र प्रकरणे जेटि० खंटि० आदर्शयोः सर्वत्र विकष्पशब्दो दृश्यते, किन्तु पु० मु० म० वि० आदर्शेषु तत्स्थाने सर्वत्र विकंपशब्द आहतोऽस्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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