Book Title: Nyayavinishchay Vivaranam Part 1 Author(s): Vadirajsuri, Mahendramuni Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 9
________________ प्रस्तावना ११ संसार के समस्त पदार्थ ज्ञेय अर्थात् शान के विषय होमे योग्य है तश शान पर्याय में ज्ञेय के जानने की योग्यता है, प्रतिबन्धक शामावरण कर्म जब हट जाता है तब वस्तु के पूर्ण स्वरूप का भाग १ शुद्ध कांच मुकजीव का चैतन्य, शुद्ध घिन्मान २ फलाई लपा हुआ कांच दर्पण (प्रतिबिम्ब रहित) शरीरी रंग काय, नाग न्य, पर्शवावस्था मिनाकार ३ ससिरिय दर्पण ३ शैयाकार, साकार, शानावस्था इस तरह चैतन्य के दो परिगमन-एक वितिकार अबद्ध अनन्त शुद्ध बैतन्यरूप मोक्षावस्थाभावी और दूसरा शरीर कर्म आदि से बसविकारी सोपाधिक ससारारस्थाभावी। संडारावस्थाभावी चैतन्यके दो परिणमन एक सप्रतिविम्य दर्पण की तरह झेयाकार और दूसरा निस्पतिविम्ब दर्पप की तरह मिसकार । संगाकार परिणमन का नाम शाम तथा निराकार परिणमन का नाम दर्शन | तत्त्वार्थ राजवार्तिक में-जीबसा लक्षण उपयोग किया है और उपयोग का लक्षण इस प्रकार दिया है पायाभ्यन्तरतुद्वयसानिधाने यथासंभवमुपलन्धुरचैतन्यातुविधायी परिणाम उपयोगः" (ता . २) अर्थात्-उपलब्धा को (जिस चैवम्य में पदार्थों के उपलब्ध अर्थात् शान करने की योग्यता हो) दो प्रकार के साथ तथा दो प्रकार के अन्यन्तर हेतुओं के मिलने पर जो चैतन्य का अनुविधान करनेवामा परिशमन होता है उसे उपबोस कहते हैं । इस लक्षण में भार हुए. 'उपलधुः' और 'पैतन्यानुविधायी ये दो पद विशेष ध्यान देने योग्य है । चैतन्या सुविधायी पद यह सूचना दे रहा है कि जो सान और दर्शन परिणमम बायाभवन्तर हेतुओं के निमित्त से हो रहे हैं वे स्वभावभूव वन्य का अनुविधान करनेवाले हैं श्राद् बैतन्य एक अनुवियता बोश है और उसके ये मायाभ्यन्तर विधान परिणमन है। चैतन्य इनसे भी परे शुद्ध अवस्थामें शुE परिणामन करनेवाला है। 'उपलक्युः' पद चैतन्यकी उस दशाको सूचित करता है अब चैतन्यमें बाह्याभ्यान्टर तुओंसे निराकार या साकार होनेको योग्यता होती है और यह अवस्था श्रमावि कालसे कबद्ध होने के कारण अनादिस ही है । तासर्य यह कि अमादिसे कर्मबद्ध होने के कारण चैतन्य को वह कई लती है जिससे पह दर्पण मना है इसमें बालाभ्याकार हेतुओंके अधीन निराकार और साकार परिणमम होते रहते जिन्हें अमपा: दर्सम और शान कहते हैं। पर अन्तमें मुक अवस्थामें जब सारी कलई धुर आती है विशुद्ध निर्विकार निर्विकल्प अमन्त अखण्ड चैतम्बमात्र रह जाता है तब उसका शुब चिप ही परिणमन होता है। ज्ञान और दर्पन परिणमन पायाधीन है। ससमें शान और दर्शनका विभाग. ही विलीन हो जाता है। तस्वार्थ राजधार्विक (१६) में घटके खपाचतुष्टयका विचार करते हुए अन्तमें घटशारक्त संथाकारको पटका स्वास्मा बताया है और निष्प्रतिक्षित नाकारको पराश्मा । यथा "चैतन्यशको खाकारी भानाकारी क्षेयाकारश्व । अनुपयुक्त प्रतिबिम्बाशायदावलयदशामाकार, प्रतिविम्याकारपरिणतादर्शतलपत् मेयाकार।" इस उद्धरणसे सष्ट है कि चैतन्यशस्निके दो परिणमन होते - साकार और झानाकार राजवासिकमें से याकार परिणमन उसका साकार परिणमन है तथा सानाकार परिषमम मिराकार । जब तक याकार परिणमन है तब तक कद वास्तविक अर्थ भानपर्यायको धारण करता है और नियाकार दशा में दसम पर्यायको । धवला टीका (पु.१पृ.४८) और मूहद्रव्यसंग्रह (१.८१-८१) में सौशान्तिक दृष्टिसे को दर्शनकी भ्य ख्या की है उसका सपर्य भी यही है कि-विषय और विषयोके सन्निपात पहिले जी चैतन्यकी निराकार परिणति या स्वाकार परिणति है उसे दान कहते हैं। राजवातिकमें चैतन्यशक्तिके जिस ज्ञानाकर की सरना है वह यास्तविक दर्शन दी है। इस विवेचनसे इतमा ती स्पष्ट श्वत हो जाता है कि-नैतन्यकी एक धारा है जिसमें प्रतिक्षण उत्पाद म्यग धौम्यातक परिणमन होता रहता है और जो अनादि-अनन्तकाल तक प्रवाहित रहने वाली है। इस घारामें कर्मापन शरीर सम्बन्ध मन इन्दिय आदि के सम्भिधानी ऐसी कलई लग गई है जिसके कारण इसका भाकार अर्थात् पदायर जालने का परिणामम होता है । इसका शमनावरण कर्मक क्षयापेशमानुधार विकास होता है। सामान्यतः शरीर सम्पर्कPage Navigation
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