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प्रस्तावना
बौद्ध परम्परा में ज्ञान नाम या चित्तरूप है। मुक्त अवस्था में चित्तसन्तनि निसवय हो पाती है। इस अवस्था में यह चित्तसन्तति घटपटादि वापदार्थों को नहीं जानती।
जैमपरम्पस शाम को अनासनम्त स्वाभाविक गुण मानती है जो मोक्ष दशा में अपनी पूर्ण अवस्था में रहता है।
संसार वृशा में शान आत्मगत धर्म है इस विषय में वार्वाक और सांण्य के सिवाय प्राय: सभी वादी एकमत हैं। पर विचारणीय बात यह है कि जन झान उत्पन्न होता है तब वह दीपक की सरह स्वपरप्रकाशी उपन्न होता है या नहीं। इस सम्बन्ध में अनेक मत -मीमांस्त झान को परोक्ष कहता है। उसका कहमा है कि ज्ञान परोक्ष ही उत्पन्न होता है। अब उसके द्वारा पदार्थ का बोध हो जाता है तब अनुमान से ज्ञान को जाना जाता है-चूँकि पदार्थ का बोध हुआ है और क्रिश बिना करण के हो नहीं सकती अतः करणभूत शाम होना चाहिए। मीमांसक को ज्ञान को परोक्ष मानने का यही कारण है कि इसने अतीन्द्रिय पार्थ का शान वेद के द्वारा ही माना है। धर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का प्रत्यक्ष किसी व्यक्ति विशेष को मही हो सकता। उसका ज्ञान दे के द्वारा ही हो सकता है। फलतः शान जब अतीन्द्रिय है तब उसे परोक्ष होना ही चाहिए ।
दूसरा मत मैयायिकों का है। इनके मत से भी शाम परोक्ष ही उत्पन होता है और उसका शान द्वितीय शान से होता है और द्वितीय का नृतीय से। अनवस्या दूषण का परिहार अब ज्ञान विषया. हर को जानने लगता है तब इस शान की धारा रुक जाने के कारण हो जाता है। इनका मत भानान्तरदेवज्ञानवाद के नाम से प्रसिद्ध है। नैयायिक के मस से ज्ञान का प्रत्यक्ष संयुक्तसमवायसनिकर्ष से होना है। मन आत्मा से संयुक्त होता है और भारमा में ज्ञान का समयाय होता है। इस प्रकार शान के उत्पन्न होनेपर समिकजन्य द्वितीय मानसज्ञान प्रथम नाम का प्राध्यक्ष करता है।
सांधने पुरुष को बसचेतक मीकार किया है। इसके मत में हरिया ज्ञान प्रकार का विकार है। इसे महताब कहते हैं। यह स्वयं अचेतन है। बुद्धि उभयमुख प्रतिविधी दर्पण के समान है इसमें एक और पुरुष प्रतिफलित होता है तथा दूसरी भोर पदार्थ। इस चुद्धि प्रतिथिस्थित पुरुष के द्वारा ही बुनि का प्रवक्ष होता है खयं नहीं।
वेदाम्ती के मन में अक्षा खप्रकार है अतः स्वभावतः ग्राम का निवर्स शान स्वप्रकाशी होदा ही अहिए।
प्रभाकर के मत में संविति स्वप्रकाशिनी है यह संचित रूप से स्वयं जानी जाती है। इस तरह ज्ञान को अनामवेदी या अस्वसंवेदी मानने वाले मुख्यतया मामांसक और नैयायिक
अकलवायेव ने इसकी मीमांसा करते हुए लिखा है कि- यदि शान स्वयं अप्रत्यक्ष हो अर्थात अपने स्वरूप को न जानसा हो तो उसके द्वारा पदार्थ का ज्ञान हमें नहीं हो सकता। देवदत्त अपने ज्ञान के द्वारा ही पदार्थों को क्यों जानता है ,यज्ञदत्त के ज्ञान के इस स्यों नहीं जानता या प्रत्येक व्यक्ति अपने ज्ञान के द्वारा ही अर्थ परिझान करते हैं बाबान्तर के ज्ञान से नहीं । इसका सीधा और सष्ट कारण यही है कि देवदर का ज्ञान स्वयं अपने सो जानता है और इसलिचे सद्भिन्न देवदत्त की आत्मा को ज्ञात है कि अमुक ज्ञान मुन्नमें उत्प उभा है यज्ञदत्त में ज्ञान उपन हो जाय पर देवदत्त को उसका पता ही नहीं चलता। अतः वशदत्त के ज्ञान के द्वास देवदत्त अयोध नहीं कर पाता। यदि जैसे यज्ञदन का शान उत्पन्न होने पर भी देवदत्त को परोक्ष रहता है, उसी प्रकार देवपक्ष को स्वयं अपना ज्ञान परोक्ष हो अर्थात् उत्पक होने पर भी स्वयं अपना परिज्ञान न करता हो तो देवदस के लिए अपना ज्ञान यज्ञदत्त के ज्ञान की तरह ही पराया हो गया और उससे अर्थबोध नहीं होना चाहिये। वह ज्ञान हमारे आत्मा से सम्बन्ध रखता है इसने । मात्र से हम उसके द्वारा पदार्थबोध के अधिकारी नहीं हो सकते जब तक कि वह स्वयं हमारे प्रत्यक्ष भर्थात स्वयं अपने ही प्रत्यक्ष नही हो जाता । अपने ही द्विसीय ज्ञान के द्वारा उसका प्रत्यक्ष माजा इससे