________________
दुःख से प्रात्मा को एवं विकादादि नहीं होना चाहिए । यदि अपने सुखको अनुमानधन या झामान्तरग्रान मामा आग और उससे मारमा में विपादादि की सम्भावना की जाय तो अन्य मुखी आत्मा के सुख का अनुमान करके बो हप होना चाहिए । अश्रवः केवड़ी को, जिसरे सभी आधों के सुखदुःस्त्रादि का प्रत्यक्ष 'झान हो रहा है, हमारे सुखदुःख से विवाद उत्पत्र होने चाहिए । दूं कि हमारे सुखनुःख से हमें ही हर्षविधादादि होते है अन्य किसी अनुमान करनेकाले या प्रत्यक्ष कानेवाले आत्मान्तर को नहीं, अतः यह माना ही होगा कि वे हमारे स्वयं प्रत्यक्ष है अार. ये स्वप्रकाशी है।
यदि ज्ञान को परोक्ष माना जाता है तो आत्मासर की बुद्धि का अनुमान नहीं किया जा सकता। पहिले हन स्वयं अरनी आरमा में ही जर तक बुन्द्रि और यमनार व्यापारों का अत्रिनाभाव प्रहण नहीं कोंगे तब तक वचनादि देशों से अन्य बुद्धि का अनुमान कैसे कर सकते है और अपनी ारमा में जय तक बुद्धि का स्वयं साक्षात्कार नहीं हो जाता तब तक अविनाभाव का ग्रह असम्भव दी है। अन्य
आत्माओं में तो बुद्धि अभी असिह ही है। आत्मास्तर में बुन्हि का अनुमान नहीं होने पर समस्त गुरुशिष्य देनलेन आदि व्यवस्थाओं का लोप हो जायगा ।
यदि अशात या अप्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा अर्थ बोध माना जाता है तो सर्वश के शाम के द्वारा हमें सधिशाम होना चाहिए। हमें ही क्यों, सपको सबके ज्ञान के द्वारा अर्धबोध हो जाना चाहिये । अतः शान को स्वसंवेदी माने बिना ज्ञान का सवार तथा उसके द्वारा प्रसिनियत अर्थबोध नहीं हो सकता। अता यह आवश्यक है कि उसमें अनुभवसिद्ध भारमसंदिस्य स्वीकार किया जाय।
नैयाधिक का ज्ञान को ज्ञानान्तरवेद्य मामना उचित नहीं है, क्योंकि इसमें अनास्था नामका महान पण आता है । मबतक एक भी झान स्वसंवेदी नहीं माना जाता तब तक पूर्व पूर्व ज्ञान का बोध करने के लिये उतर उसर ज्ञानों की कल्पना करनी ही होगी। क्योंकि वे भी ज्ञानव्यक्ति, अज्ञात रहेगी यह स्थपूर्व ज्ञान व्यक्ति की येदिका नहीं हो सकती। और इस तरह प्रथम ज्ञान के अज्ञात रहने पर उसके द्वरा पदार्थ का पोध नहीं हो सकेगा। एक ज्ञान के जानने के लिए ही जब इस तरह अनन्त ज्ञानववार, चलेगा तथ अम्ब पदायों का ज्ञान कय उत्पन्न होगा? थक करके या अरुणि से था अन्य पदार्थ के सम्पर्क से पहिली शानशर को अपूरी छोड़कर अमवस्था का वारण करना इसलिये बुधियुक्त नहीं है कि-ओ दशा प्रथम ज्ञान की हुई है और जैसे बढ़ बीच में ही अज्ञात दशा में लटक रहा है वही दशा अन्य ज्ञानी की भी होगी। ईश्वर का ज्ञान यदि अश्यसंवेदी मारा जाता है. तो उसमें सशसा सिद्ध नहीं हो सकेगी, क्योंकि एक तो उसने अपने स्वरूप को ही स्वयं नहीं जाना दूसरे अप्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा बाजार का परिज्ञान नहीं कर सकता। ईश्वर के दो निध्य ज्ञान इसलिए मानना कि-एक से वह जान को जानेना तथा दूसरे से ज्ञान को-निरर्थक है, क्योंकि दो ज्ञान एक साथ उपयशेम दशा में नहीं रह सकते। दूसरे यदि वह शान को जानने वाला द्वितीय ज्ञान स्वयं अपने स्वरूप का प्रत्यक्ष नहीं करता तो उससे प्रथम अज्ञान का प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा। यदि उसका प्रत्यक्ष किसी नृतीय शान सं माना जाय तो निवस्था दूपण होगा। यदि द्वितीय ज्ञान को स्वसंवेदी मानते हैं तो प्रथम ज्ञान को ही स्वसंवेदी मानने में क्या काया है।
सांप के मत में यदि शान प्रकृति का विकार होने से अचेतन है, वह अपने स्वरूप को नहीं जामता, उसका अनुभव शुरूप के संचेतन के द्वारा होता है तो ऐसे अचेतन ज्ञान की कक्षपना का क्या प्रयोजन है? जो पुरुष का संचेतन ज्ञान के स्वरूप का संवेदन करता है यट्टी पदाधों को भी जान सकता है। पुरुष का संखेतन अपि स्वसंवेदी नहीं है तो इस अकिरिकर ज्ञान की सच्चा भी किससे सिर की जायगी ? असः स्वार्थसंवेदक पुरूपानुभव से भिन किसी प्रकृतिविकारात्मक अचेतन ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती । करण या मा-श्रम के लिए इन्दिरों और मन मौजूद है। वस्तुतः ज्ञान और पुरुषगतसंचेतम ये दी शुदा है ही नहीं। पुरुप, जिसे सांरूप कूटस्थ निरय मामला है,स्वयं परिणामी है पूर्व पाय को छोड़कर उत्तर पर्याय को धारण करता है। संचेतना ऐसे परिणभिनित्य पुरुष का ही धर्म हो सकती है।