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प्रस्तावना
भी नहीं होता कि अतीत पक्षमान और भविष्य दिलकुल असम्बयु और अतिविछिन हो । वर्तमान के प्रति अतीत का उपावन कारण होना और वर्तमान का भविष्य के प्रति, यह सिद्ध करता है कि तीनो क्षणों की अविचित कार्यकारणपरम्परा है। न तो वरनु का स्वरूप सदा स्थायी नित्य ही है और न इतना विलक्षण परिणमल करनेवाला जिससे पूर्व और उत्तर मिक्रसमसाम की सरह अतिविछिन हो।
भवन्त नागसेन से मिलिन्द प्रबन में जो कम और पुनर्जन्म का विवेचन किया है (दर्शनदिग्दर्शन १०५५१) उसका तास्पर्य यही है कि पूर्वक्षण को प्रतीय अर्थत उपाशन कारण बनाकर उत्तरक्षण का समुत्पाद का अस्थिमगिक रिसाद सिमे पर यह होता है, सो इस आशय का पापय है उसका स्पष्ट अर्थ यही हो सकता है कि क्षणसन्तति प्रवाहित है उसमें पूर्व क्षया उसरक्षण यमता जाता है जैसे वर्तमान अतीतसंस्कार पुंज का फल है वैसे ही भविष्यारण का कारण भी।
श्री राहुल सांकृत्यायनले दर्शन-दिग्दर्शन (पृ० ५१२) में प्रतीत्यसमुत्पाद का विवेचन करते हुए लिखा है कि-"प्रतीत्यसमुत्पाद कार्यकारण नियम को अविच्छिन्न नहीं विच्छिन्न प्रवाह बतलाता है। प्रतीत्यसमुत्पाद के इसी विकिय प्रवाह को लेकर आगे नागार्जुन ने अपने शून्यदाद को विकसित किया" इमके मत से प्रतीत्यसमुत्पाद विच्छिन्न प्रयाहरूप और पूर्वक्षण का उत्तरक्षण से कोई सम्बन्ध नहीं है। पर ये प्रतीत्य वारुद के हेतु करवा' अर्थात् पूर्वक्षण को कारण बनाकर इस सहज अर्थ को भूल जाते हैं। पूर्वक्षण को देतु बनाए घिमा यदि उत्तर का नया ही उत्पाद होता है तो भदन्त नामसैन की कर्म और पुनर्जन्म की सारी व्याख्या आधारशूम्य हो जाती है। क्या द्वादशान प्रतीत्यसमुत्पाद में विच्छिा प्रवाह युक्तिसिद्ध है? यदि अधिया के कारण संस्कार वापस होता है और संस्कार के कारन विज्ञान भादि तो पूर्व और उहर का रवाह विच्छिा कहाँ हुमा एक चित्तक्षण की अविद्या उसी चिसक्षण में ही संस्कार उत्पन करती है अन्य चित्तक्षम में नहीं, इसका नियामक वही प्रतीस्य है। जिसको प्रतीत्य जिसका समुत्पाद हुआ है उन दोनों में अतिपिच्छेद कहाँ मुआ?
राहुलजी यहीं (पृ०५९२) भनित्मवाद की “पुर का मित्यवाद भी 'दूसरा ही उत्पन्न होता है। दूसरा मट होता है। के कहे अनुसार किसी एक मौलिक हरव का बाहरी परिवर्तन मात्र नहीं बल्कि एक का बिलकुल नाम और दूसरे का बिलकुल नया उत्सद है। बुद्ध कार्यकारण की निरन्तर या अविच्छिन सन्तति को नहीं मानते। इन शब्दों में प्यावया करते हैं। राहुलजी यहाँ भी केवल समुत्पाद को ही ध्यान में रखते हैं, उसके मूलरूप प्रतीत्य को सर्वया भुला देते है। कर्म और गुमजन्म की सिद्धि के लिए प्रयुक्त "महाराज, यदि फिर भी अन्म नहीं प्राइव करे तो मुक्त हो गया; किन्तु चूंकि बह फिर भी जन्म प्रहण करता है इसलिए (मुक) नहीं हुआ।" इस सन्दर्भ में यह फिर भी शक्ट क्या अविछिन प्रवाह को सिद्ध नहीं कर रहे हैं । योद्धदर्शन का 'अमौक्तिक अनामयादी' नामकरण केवल भौतिकवादी चाक और आत्मनित्यवादी औपनिषदे के निराकरण के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिये, पर वस्तुतः धुद क्षपिचिरावादी थे। क्षणिकचिस को भी अविच्छिा सन्तति सानते थे न कि विषिछाप्रवाइ। आचार्य कमलशील ने तत्वसंग्रहपंजिका (पृ. १८१) में कर्तृकर्मसम्बन्धपरीक्षा करते हुए इस प्राचीन शोक के माद को उत किया है
"यस्मिन्नेव तु सन्ताने आहिता कर्मवासना।
फलं तत्रैव उन्धत्ते कार्यासे रक्तता यथा।" अर्थात्-जिस सन्तान में कर्मवासना प्राप्त हुई है उसका फल भी उसी सन्ताम में होता है। जी. लाल के रस से रंगा गया है उसी कपास बीज से उत्पन्न होनेवाली सई लाल होती है अन्ध नहीं। राहुलली इस परम्परा का विचार करें और फिर दुद्ध को विक्षिप्रवाही बताने का प्रयास करें ! हाँ, यह अवश्य था कि वे अनन्त क्षणों में शश्वत ससा रखनेवाला कूटस्थ निस्य पदार्म स्वीकार नहीं करते थे। पर वर्तमान क्षण अमन्स अतीत के संस्कारों का परिवर्तित पुंज स्वगर्भ में लिए है और उपादेव भविष्यक्षण