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प्रस्तावना
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अलाव मे इसकी आलोचना करते हुए लिखा है कि---- अट्य तत्व स्वतः प्रतिभासित होता है या परतः? यदि स्वतः; तो किसी को विवाद नहीं होना चाहिए। विश्य अवानी की तरह क्षणिक विज्ञानमादी भी अपने ताप का स्वतः प्रतिभास कहते हैं। इनमें कौन सत्य समझा ना ? परतः प्रतिभास पर के बिना नहीं हो सकता । पर को स्वीकार करने पर अद्वैत तत्त्व नहीं रह सकता । विज्ञानवादी इन्बकाल या स्वप्न का मारत देकर राक्ष पदार्थ का लोप करना चाहते हैं। किन्तु इन्द्रमाक्षप्रतिभासिस पर और बायसत् घट में अन्तर तो स्त्री वाल सोपाल आदि भी करते है। घट पद आवाक्षपदा में अपनी इस अर्थक्रिया के द्वारा आकोक्षाओं को पास कर सन्तोष का अनुभव करते हैं जब कि इब्रजाल का मायानुष्ट पदार्थों से म तो अर्थक्रिया ही होती है और न हज्जन्य सन्तोयानुसार हो । उनका कास्वनिकपमा तो प्रतिभास काल में हो ज्ञात हो जाता है। धर्मग्रन्थ, पुस्तक, रद्दी आदि संज्ञार मनुष्यकृत और काल्पनिक हो सकता है पर मिल बजमनाले रूपरसगन्धस्पर्श वाले स्कूल पदार्थ में ये संशा की जाती है वह सो काल्पनिक नहीं है। यह तो ठोस, वजनवार, सप्रतिध, स्पस्मादिगुणों का आधार परमार्थसर पदार्थ है। उस पदार्थ को अपने अपने संकेत के अमुसार कोई धर्मग्रन्थ कहें, कोई पुस्तक, कोई कुक, कोई किताम या अन्य काछ कहे। ये संकेत व्यवहार के लिए अपनी परम्परा और वासनाओं के अनुसार होते हैं उसमें कोई आपति नहीं है। हिमष्टि का अर्थ भी यही है कि-सामने रखे हुए परमार्थसन, ठोस पदार्थ में अपनी रष्टि के अनुसार जगत् व्यवहार करता है। उसकी श्वहारसंज्ञाएँ प्रतिभाविक हो सकती है पर वह पदार्थ जिसमें ये संज्ञा की जाती है, पछा या विज्ञान की सरह ही परमार्थसत है। नीलाकार ज्ञान से सो कपड़ा नहीं रंगा उस सकता ! कपड़ा रंगमे के लिए होस परमार्थ सत् ज नील चाहिए जो ऐसे ही कपड़े के स्येकतन्तु को नीला मनायगा । यदि कोई परमास नील अर्थ न हो तो नीलाकार बरसना कहाँ से उत्पन्न हुई ? वासना तो पूर्वानुभव की उसर दस है। यदि जगत में नील अर्थ नहीं है तो ज्ञान में नीलाकार कहाँ से आया? वासना भीकाफार कैसे बन गई ? तापर्य ग्रह कि प्यपहार के लिए की जानेवाली संहार.
-अनिष्ट, सुग्घर असुन्दर, आदि कल्पना भले ही विकासपकल्पित हो और टिमष्टि की सीमा में हाँ पर जिस आशर पर ये सब कानाएँ कल्पित होती है वह आशर ठोस और सत्य है। विप के ज्ञान से मरण नहीं हो सकता । विपका खावाला वियोनो ही परमार्थसत् है तथा घिष के संयोग से होनेवाले शरीरपल रासायनिक परिणमन भी। पर्वत मकान मदी आदि पवा यदि ज्ञानात्मक ही हैं सो उनमें मतद स्थूलत्व सरतिवरब आदि धर्म करे अ सकते हैं। ज्ञानस्वरूप नबी में स्नान या ज्ञानावरक जल से नास शान्ति अधवा झानात्मक पधर से सिर तो नहीं फूट सकमा १.यदि अद्वरमान ही है तो शास्रोपदे it निरीक हो जायेंगे। परप्रतिपत्ति के लिए ज्ञान से अतिरिक्त वचन की सम्रा आवश्यक है। अयशान में प्रतिपत्ता, प्रमाण, विचार आदि प्रतिभास की सामग्री तं मानना ही पड़ेगी अन्यथा प्रतिभास कैसे होगा। अयज्ञान में अर्थ अनर्थ, सत्व-अस्तव जादि की व्यवस्था न होने से तमाही झानों में प्रमाणसा या अपमाणता का निश्चय कैसे किया जा सकेगा ? शाकात की सिद्धि के लिए अनुमान के भूत साध्य साधन दृष्टान्त आदि तो स्वीकार करने ही होंगे अन्यथा अनुमान कैसे हो सकेगा? सहीपलम्भ-एक साथ उपला होना----से अमेन सिद्ध नहीं किया जा सकता; कारण दो मिनासताक पदार्थों में ही एक साथ उपलध होना कहा आ सकता है। ज्ञान अन्तरंग में बेसन रूप से तया अर्थ दहिरन में जपरूप से अनुभव में भाता है अतः इनका सहोषसम्म असिन भी है। अर्थशुन्य ज्ञान स्शकारतया तथा शामस्म अर्थ अपने अर्थरूप में अस्तिष्य रलसे ही है भले ही हमें वे अज्ञात हो । यदिहल बाह्यपदाथों का इदमित्यरूप निरूपण था निर्वचन नहीं कर सफले सो इसका यह सारस्य नहीं है कि उन पाधों' का अस्तित्व ही नहीं है। अनवधर्मामक पनार्थ का पूर्ण निरूपम तो सम्भव ही नहीं है। सद या शान की असक्ति के कार पायों का लोप नहीं किया जा सकता । नीलाकारहान रहने पर भी कपड़ा रंगने को नीलपदार्थ की निशाम्त आवश्यकता है। ज्ञान में नीलाकार भी विना नील के नहीं आ सकता। अनेक परमाणुओं से जो स्कन्ध छमता है उस स्कन्ध का कोई स्या अस्तित्व नहीं है उन्ही परमाणु का कथविचाक्षय सम्बन्ध