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न्यायविनिश्चयविवरण
एक ही तस्व का प्रतिमास चेतन और असेतन रूप में माना गया। इस सरह देश काल और स्वरूप, हर प्रकार से करम अमेव की कोटि वेदान्त दर्शन है। सैवदर्शन प्रत्येक चित् अचित् स्त्रशक्षणों की वास्तव स्वतन्त्र सत्ता मानकर ही चुप नहीं रहता। वा उनमें कालिक भर भी क्षणपर्याय तरु स्वीकार करसर है। यहाँ तक तो उसका पारमायिक भेद है। जो प्रथमक्षा में है वह वितीय में नहीं, ओ जहाँ जिस समय से है वह वहीं उसी समय वैसे ही है, द्वितीयक्षपद मैं नहीं' 1 दो देशों में रहनेवाली दो क्षणों में रहनेवाली कोई वस्तु नहीं है। इस तरह देश काल और स्वरूप की पधि से अन्तिम भेद मौदर्शन का लक्ष्य है। पर अभेद की तरफ वेदान्त दर्शन और भेद की ओर अखदर्शन वास्तववाद से काल्पनिकता या अवास्तव
मारे गहुँगा । निजाती निभानादी शून्यथा समी काल्पनिक भेद के उपासक हैं। उनमे बावजगत् का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं किया । किसी ने उसे सावृत कहा तो किसी ने उसे अविद्यानिर्मित कहा तो किसी ने उसे प्रत्ययमात्र ।
जैन दर्शन ने भेद और अभेद का अन्तिम विचार तो किया पर वास्तवसीमा को साँधा नहीं है। उसने दो प्रकार के अभेदप्रयोजक सामान्य धर्म माने तथा दो प्रकार के विशेष, जो भेष कल्पना के विषय होते हैं। दो विभिल सत्ताक च्या में अमेत्र व्यवहार सारश्य से ही हो सकता है एकदम से नहीं। इसलिए परम संग्रहना यद्यपि वेदान्त की परसत्ता को विक्य करता है और कद मेशा है कि 'सदूपेश देतनाचेतनानां भेदाभाछन् अाम् सप से शेतन और अचेतन में कोई भेद नहीं है। पर यह व्यवाहारनय के विपरभूत वास्तव मेंर का लोप नहीं करता। यह स्पष्ट धारणा करता है कि वेतन और अवेतन में सात साष्टश्य रूप से अनुगतप्पवहार हो सकता है पर कोई ऐसा एक सत् नहीं जो दोनों में वास्तव अनुगत सत्ता रखता हो, सिवाय इसके कि दोनों में 'सत् सत्' ऐसा समान प्रत्यय होसा है और 'सत् मात्' ऐल्स शब्द प्रयोग होता है। एक दव्य की कालक्रम से होने वाली पर्यायों में को अनुगसम्यवहार होता है वह परमार्थसत् एकम्यमूलक है। पापि द्वितीक्षण में अयिभनय अखण्ड का श्रखण्ड बदलता है-परिवर्तित होता है पर उस सत् का के परिवर्तित हुआ है अस्तित्व दुनिया से नष्ट नहीं किया जा सकता, उसे मिटाया नहीं जा सकता। जी वर्तमानक्षण में अमुक दशा में है वहीं नक्षत का अखण्ड पूर्वक्षण में अतीतदशा में था, वहीं बदलकर आगे के क्षण में तीसरा रूप लेगा, पर अपने स्वरूपसस्त्र को नहीं रोक सकता, सर्वथा महाविनाश के गर्स में प्रतीम सही हो सकता । इसका यह तात्पर्य बिलकुल नहीं है कि उसमें कोई शाश्वत कूटस्थ अंश है, किन्तु बदलने पर भी उसका सन्तामप्रवाह चालू रहता है कभी भी उपिछत्र नहीं होता और नसूसरे में विलीन होता है । असः एक मुख्य की अपनी पयों में होनेवाला अनुगस व्यवहार जनतासामान्य या दृष्पमूलक है। यह अपने में यस्तुसत् है। पूर्व पर्याय का अखण्ड निवोद उसरपर्याय है और उत्तरपर्याय अपने निचोड़भूत आगे की पर्याय को जन्म देती है। इस सरह जैसे अतीत और वर्तमान का उपादानोपादेय सम्बन्ध है उसी तरह वर्तमान और भविष्य का मी । परन्तु सत्ता वर्तमान क्षणमात्र की है। पर यह वर्तमान परम्परा से अनन्त भत्तीसों का उत्साधिकारी है और परम्परा से अनन्त भविष्य का उपादान भी बनेगा । इसी दृष्टि से द्रव्य को कालत्रमयी कहते है । शम्य इतने रूचर होते हैं कि वस्तु के शतप्रतिशत स्वरूप को अभ्रान्त रूप से उपस्थित करने में सर्वत्र समर्थ नहीं होते। यदि वर्तमान का अतीत से दिलकुल सम्बन्ध न हो सभी मिरम्बय क्षणिकस्त्र का प्रपन हो सकता है, परन्तु जब वर्तमान अतीस का ही परिवर्तित रूप है तम यह एक.ष्टि से साग्वय ही दुखा। वह फेवल पंक्ति और सेना की सरहस्यवहारा किया जानेकाला संत नहीं है किन्तु कार्यकारणभूत और खासकर उपादानोपादेयमूलक तत्व है। वर्तमान जलबिन्दु एक ऑविसजन और एक हाजत के परमाणुओं का परिवर्तन मात्र है, अर्थात्
ऑक्सिजन को निमित्त पाकर हाइड्रोजन परमाणु और हाइवोजन को निमित्त पाकर ऑक्सिजन परमाणु दोनों ने ही जल पर्याय प्राप्त कर ली है। इस पिरमाणुक अलविनु के प्रत्येक जलाशु का विश्लेषण कीथिए सो शत होगा कि जो एटम ऑक्सिजन अवस्था को धारण किए था वह समूचा बदलकर जत बन गया है। उसका और पूर्व ऑक्सिजन का यही सम्बन्ध है कि यह उसका परिणाम है। वह जिस समय जल नहीं बनता