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न्यायविनिश्चयविवरण
में अपमा आकार अर्पिस भी करने पर अतीन और. अनागन आदि अविद्यमान अर्थ ज्ञान में अपना आकार कैसे दे सकते हैं?
विषयज्ञान और विपयशानज्ञान में भी अन्तर ज्ञान की अपनी योग्यता से ही हो सकता है। आकार दानने पर भी अन्ततः वयोग्यता स्वीकार करनी ही पड़ती है। अतः शैवपरिकस्थित साकारता अनेक दुषों से दूषित होने के कारण ज्ञान का धर्म नहीं हो सकती। ज्ञान की साकारता का अर्थ है ज्ञान का उस पार्थ का निश्चय करना या उस पदार्थ की ओर उपयुक्त होना। निर्विकल्पक अर्थात् शब्दसंसर्ग की योग्यता से भी रहित कोई ज्ञान हो सकता है यह अनुभवसिव नहीं है।
बाल अर्थ को जानता है.--मुख्यतया भी विचारधाराएँ इस सम्बन्ध में है । एक यह कि-ज्ञान अपने से भिन्न सचा रखनेवाले जड़ और चेतन पदाधों को जानता है। इस विचारधारा के अनुसार मति में
न पश्यों को स्वतन्त्र सत्ता है। दूसरी विचारधारा वाया जल्द पवायों की पारमार्षिक सत्ता नहीं मानती, किन्तु उसका मातिमासिक अस्तित्व स्वीकार करती है। इनका मत है कि घटपटादि वाद्य पदार्थ अनामिकालीन विचित्र वासनाधी के कारण या माथा अविद्या आदि के कारण विचित्र रूप में प्रतिभासित होते हैं। जिस प्रकार स्वपन या इन्द्रजाल में वाह पदार्थों का अभिस्व म होने पर भी अनेकविध प्रक्रियाकारी पदार्थों का सत्ययत प्रतिभास होता है उसी तरह अघिद्या बासना के कारण नानाविध दिचिन्न अयों का प्रतिनासहोचाता है। इनके मत से मात्र चेतमतत्व की ही पारमार्थिक ससा है। इसमें भी अनेक मतभेद हैं। वेदान्ती एक नित्य व्यापक प्रम का ही पारमार्थिक अलिक स्वीकार करते हैं। यही अशा नानाविध जीवाश्माओं और अनेक प्रकार के घटयवादिरूप पाय बों के रूप में प्रतिभासित होता है। संवेदना तबादी क्षणिक परमाणुरूप अनेक शानक्षणों का पारमार्थिक अस्तित्व मानते हैं । इनके मत से अनेक ज्ञानसरताने पृथक पृथक पारमार्थिक अस्तित्व रखती हैं। अपनी अपनी पासनाओं के अनुसार नक्षय नामा पपायों के रूप में भासित होता है। पहिली विचारधारा को अनेकविध विस्तार स्पाययशेषिजा, सांख्ययोग, जैन, सौतिक सैन् आदि दर्शनों में देखा जाता है।
बाहादोष की दूसरी विचारधारा का आशर यह मालूम होता है किस्मेक म्यक्ति अपनी कल्पना के भनुसार पदार्थों में संकेत करके भयहार करता है । जैसे एक पुस्तक को देखकर उस धर्म का अनुयायी उसे धर्मग्रन्थ समझकर पूज्य मानता है। पुस्तकालयाध्यक्ष उसे अन्य पुस्तकों की तरह सामान्य पुस्तक समझता है, तो दुकानदार उसे रक्षा के भाव खरीद कर पुदिया बोधता है। भगी उसे कूचा-कचरा मानकर झाड़ सकता है। गाय भैस आदि पशुमात्र उसे पुनली का पुंज समझकर घास की तरह खा सकते हैं तो दीमक आदि की को उसमें पुस्तक यह कल्पमा ही नहीं होगी। अब आप विचार कीजिए कि पुस्तक में, धर्मग्रन्थ, पुनका रही कचरा, घास की तरह साय आदि संज्ञाएँ तशव्यक्तियों के ज्ञान से ही आई है अर्थात् धर्मनन्ध पुन्सक आदि का सद्भाव उन व्यक्तियों के ज्ञान में है, बाहिर नहीं। इस तरह धर्मग्रन्थ पुस्तक आदि की व्यवहारसता है परमार्थसत्ता नहीं। यदि थमन्त्रस्य पुस्तक अदि की परमार्थ सत्ता होती तो यह प्राधिमा-गाय, भैंस को भी धर्मग्रन्थ या पुस्तक दिखनी चाहिये थी। अतः जगत केवल कल्पनामा है. उसका वास्तविक अस्तित्व नहीं ।
इसी तरह बट एक है या अनेक । परमाणुओं का संयोग कदेश से होता है या सर्वदेश से। यदि एकटेश से तो परमामुभी से संयोग करने वाले मन परमाणु में छह अंश मानने पमे । यदि दो परमामुओं का सर्वदेश से संयोग होता है तो अणुओं का पिंड अगुमात्र हो जायगा। इस सरह जैसे - जैसे या पयार्थों का विचार करते है वैसे वैसे उनका असितत्व सिद्ध नहीं होता। बाह्य पदार्थों का
भनित्य तदाकार भाग से सिखा किया जाता है। यदि नीलाकार ज्ञान है तो नील गाम के पास पदार्थ की क्या आवश्यकसा दि मीणाकार शान नहीं तो नील की ससा की कैसे सिद्ध की जा सकती है? अत: ज्ञान ही बाद और आतर माझ और ग्राहक रूप में स्वयं प्रकाशमान है कोई घासाय माहीं। पदार्थ और शाद का सहोपसम्म नियम है लसः दोनों अभिन्न है।
RANI
Nindiyomantinoinine