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न्यायविनिश्वयविवरण
दिया जाता है। जैमष्टि में उपदानयोग्यता पर ही विशेष मार दिया गया है, निमित्त से यद्यपि उपदोन विकसित होती है पर निर्मिताधीन परियाद नहीं
जाते
प्रत्यक्ष जैसे कृष्टा में इन और मन जैसे किसानों की अपेक्षा भी स्वोर नहीं की गई। अध्यक्ष व्यवहार का कारण भी आयात की गई है और परोध व्यवहार के लिए इन्द्रियमन आदि पदार्थों की कक्षा रखना। यह तो जैन का अपना आध्यात्मिक नियम परिव
अर्थात्
को विषय का मुद्दे विचारकोटि के
"प्रत्यक्षलक्षणं स्पष्ट साकारमा । द्रव्यसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम् ॥”
परमार्थ
ही साकार हो
हो और मामवेदी हो उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। इसमें करते हैं-
ज्ञान आदी होता है।
और सामान्यविशेषात्मक अ निम्न
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२ ज्ञान साकार होता है।
३. ज्ञान अर्थ को जानता है।
४ अर्व सामान्य
है।
अर्थ
है।
६
वह ज्ञान प्रत्यक्ष होगा जो परमार्थतः स्पष्ट हो ।
ज्ञान का आरवेदिश्व' रन आत्मा का गुण है या नहीं यह प्रश्न भी दर्शकों की का विषय रहा है। शाम को पृथ्वी आदि भूतों का ही धर्म मानता है भूतों का धर्म स्वीकार करके सूक्ष्म और भूत के ि अस्थायि की शान कहता है। सांय चैतन्य को पुरुषधर्म स्वीकार करके भीमाद्धिको कृतिका धर्म भागता है से चैतन्य और शान इस स है। पुरुषात बापदा को नहीं खदानों को जिसे भी मत काही परि है। यह बुद्धि उभयतः प्रतिविन्धी दर्पण के समान है। इसमें एक और पुरुष है और दूसरी ओर पदार्थों के आकार इस बुद्धि मध्यम के द्वारा ही पुरुष को यह मिया द्वार होने लगता है।
चैतम्य प्रतिफलित होता
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"मैं घट को जानता हूँ"
यादशेषिक ज्ञान को आत्मा का गुमानी
है, पर इनके मत में आत्मा इन्धपदार्थ पृथक है तथा ज्ञान युगपदार्थ जुदा । यह जारा का थाभावी अर्थात् अब तक आमा है तब तक उसमें अवश्य रहनेवाला नहीं है किन्तु लोग सेविशेष ध है। अब तक
मिलेंगे
आदि कारणों से मन होगा। हो जाती है।
उत्पन होगा, अवस्था में मन इन्द्रिय आदि का सम्बन्ध में रहने के कारण ज्ञान की धारा इस अवस्था में धारणा रहता है। तात्पर्य यह कि बुद्धि सुखदुःखादि विशेष गुण श्रीवाधिक है, स्वभावतः आरमा ज्ञावशून्य है। ईश्वर नाम को एक आत्मा ऐसी है जो अनन्त नित्यज्ञानवाणी है । परमात्मा के सिवाय अन्य सभी जीवात्माएँ स्वभावतः ज्ञानसूत्र हैं ।
दाग और चैतन्य को ख़ुदा जुदा मानकर चैतन्य का आश्रय ब्रह्म को वथा ज्ञान का आश्रय अन्तःकरण को मानते हैं। शुद्ध में विषयपरिक ज्ञान का कोई अस्तित्व शेष नहीं रहता ।
मीमोलक ज्ञान को आत्मा का ही गुण मानते हैं। इनके यहाँ ज्ञान और आत्मा में सदस्य
माना गया है।