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प्रस्तावमा
पुरुषों की हिसकाममा से सम्बशिग्न-वन रूपी जल से उस न्याय पर आए हुए मल को दूर करके उसको निर्मल बनाने के लिए कृतसकल्प होते हैं । जिसके द्वारा वस्तु स्वरूप का निर्णय किया आय उसे न्याय कहते है । अर्थात् न्याय उन उपार्योको कहते हैं कि मस्तु तस्म का नियम हो गत साथी (1) में प्रमाण और नए दो ही निर्दिष्ट है । आत्मा के अवगत गुणों में उपयोग ही एक ऐसा गुण है जिसके द्वारा आरमा को लक्षित किया जा सकता है। उपयोग अर्थात चित्तियति। उपयोग हो मकार का है एक ज्ञानोपयोग और दूसरा दर्शनोपयोग । एक ही उपयोग जब परपदायों के मानने के कारण साकार समता है तब ज्ञान कहलाता है वही उपयोग जन यापदार्थों में उपयुक्त र रहकर मात्र दैतम्यरूप रहता है तब निराकार अवस्था में दर्शन कमाता है । यद्यपि दार्शनिकक्षेत्र में दर्शन की प्यावा बदली है और वह पैतन्याकार की परिधि को लाँधकर पदार्थों के सामान्यावलोकन तक जा पहुंची। परन्तु सिद्धान्त अन्यों में दर्शन का अनुपयुक बाद तावत् ही वर्णन है। सिद्धान्त ग्रन्थों में स्पष्टतया विषय
और विषपी के सखिपात के पहिले दर्शन का काम बताया है। जब तक आरमा एकपदार्थविषयकशानोपयोग से पुत होकर दूसरे पदार्थविषयक उपयोग में प्रवृत्त नहीं हुआ तब तक बीच की निराकार अवस्था दर्शन कही जाती है। इस अवस्था में चैतन्य निराकार या मैतम्याहार रहता है । दार्शनिक प्रयो में दर्शन विषपषिययी के सत्रिपात के अनन्सर वस्तु के सामान्यावलोकन रूप में वर्णित है । और बाहर चौलसम्मत निर्विकल्पकशान और नैयायिकादिसम्मय निर्विकल्पक शाम को प्रमाणता का निराकरण करने के लिए इसका यही तात्पर्य है कि बौद्धादि जिस निर्विकल्पक को प्रमाण मानते हैं जैन उसे निकोटि में गिनते हैं और यह प्रमाण की सीमा से बहिर्भूत है। अस्तु,
___उपायतव में ज्ञान ही भाता है। जब ज्ञान वस्तु के पूर्ण रूप को जानता है तब प्रमाण कहा जाता है तथा जब एक देश को जानता है तब नय । प्रमाण का लक्षण साशरणतया प्रमाकरणं प्रमाण यह सर्व स्वीकृत है। विवाद यह है कि करण कौन हो? मैयायिक सन्निकर्ष और ज्ञान बोनी का करण रूप से निर्देश करते हैं। परन्तु जैन परम्परा में अज्ञान निवृति रूप ममिति का करण ज्ञान को मानते है। आचार्य समन्तभार और सिन्द्रसैन में प्रमाण के लक्षण में 'स्वपराषभासका पतु का समावेश किया है। इस पद का तात्पर्य है कि प्रमाज को 'स्व' और 'पर' दोनों का जिक्रय करानेवाला होना चाहिए । यद्यपि
देख और माणिक्यनन्दी ने प्रमाण के लक्षण में 'अमधिगताप्राही और अवार्थव्यवसायात्मक पदी निवेश किया है, पर यह सर्वस्वीकृत नहीं हुआ। प्राचार्य हेमचन्द्र ने तो 'शषभास' पद भी प्रमाण के लक्षण में अनावश्यक सममा है। उनका कहना है कि स्वावभासकाष ज्ञानसामाग्य का धर्म है। झन चाहे प्रमाण हो या अश्माण, वह संवेदी होगा ही। तात्पर्य यह है कि बैन परम्परा में ऐसा स्वसंवेदी ज्ञान प्रमाण होगा जो पर पदार्थ निर्णय करनेवाला हो।प्रमाण सकलदेशी होता है एक गुण के द्वारा भी पूरी वस्तु को विषय करता है।नय विकलादेशी होता है क्योंकि वह जिस धर्म का स्पर्श करता है उसे ही मुख्य भाव से विषय करता है।
प्रमाण के मे-सामान्यतया प्राचीन काल से जैन परम्परा में प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेद निर्विवाद रूप से स्वीकृत चले आ रहे है। आत्ममात्र सापेक्ष ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते है तथा जिस शान में इन्द्रिम सन प्रकाश आदि परसाधनों की अपेक्षा हो वह शान परोक्ष कहा जाता है। प्रत्यक्ष और परोक्ष की या परिभाषा जैन परम्परा को अपनी है। जैन परम्परा में प्रत्येक वस्तु अपने परिणमन में स्वयं उपा. दान होती है। जिलने परनिमितक परिणमन हैं ये सब व्यवहार मूलक है। जिसरे मात्र स्वनिमित्तक परिणामन थे परमार्थ है, मिश्चयगय के विषय है। प्रत्यक्ष और परोक्ष के लक्षण में भी वही स्थाभिमल अधिकार्य कर रही है। और उसके निवांट के लिए अक्ष पाग्य का अर्थ (अक्ष्योति व्याप्नोति जानासीत्पक्ष श्रामा) आत्मा किया गया । प्रत्यक्ष के लोकपसिव अप के निर्वाह के लिए हनिमय शाम को सांचपहारिक संज्ञा दी। पयपि शास्त्रीय परमा ध्याख्या के अनुसार इधियजन्य ज्ञान परसापेक्ष होने से परोक्ष है किन्तु लोकम्यवहार में इनकी प्रत्यक्षरूप से प्रसिद्धि होने के कारण इन्हें संभावहार प्रत्यक्ष कह