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न्यायविनिश्यविवरण भी होती है। अतः वस्तु स्मार वक्तव्य है। जप मुख मा तीन है सब इनके द्विसं योगी भंग भी तीन हंगी स्था वियोगी भंग एक होगा। जिस तरह मसुष्कोटि में सत् और असा को मिलाकर प्रभ होता है कि "या सत् होकर भी वस्तु असा है। उसी तरह ये भी प्रभ हो सकते हैं कि--- क्या सत होकर भी पस्तु अवकज्य है? २ क्या असर होकर भी वस्तु अवक्तव्य है। ३. क्या सल-असन् होकर भी वस्तु अवतम्य है।म तीनों प्रश्नों का समाधान संयोमझ चार भंगों में है। अर्थात्
(७) अस्ति नास्ति उभय रूप वस्ल है-स्वतुष्य और परमतुष्टय र क्रमशः दृष्टि रखने पर और धोनों की सामूहिक विवक्षा रहने पर।
(५) अस्ति अवक्तव्य वस्तु है---प्रथम समय में स्वचतुष्टय और द्वितीय समय में युगपत स्व. पर चतुष्टय पर क्रमशः पशि रखने पर और दोनों की सामूहिक क्यिक्षा रहने पर।
(१) भास्ति अषकन्य वस्तु है--प्रथम समय में पर चतुष्टय और द्वितीय समय में युगपत् स्व. पर चतुष्टय को क्रमशः इष्टि रखने पर और दोनों की सामूहिक विवक्षा रहने पर।
(७) अस्ति मास्ति भवन्य वस्तु है---प्रथम समय में स्वचसुष्टय द्वितीय समय में पर चतुष्टय तथा तृतीय समय में युगपत् स्व-पर चतुष्टय पर क्रमशः दृष्टि रखने पर और सीनों की सामूहिक विवक्षा रहने पर।
जय अस्ति और नास्ति की तरह अबसण्य भी वस्तु का धर्म है तब बैसे अस्ति और मास्ति को मिलाकर चौथा भंग यन जाता है वैसे ही भक्ताय के साथ भी अस्ति, नास्ति और अस्ति नास्ति मिलकर पाँच छठवें और सातवें मंग की कृष्टि हो जाती है।
इस सरह गणित के सिमान्त के अनुसार शान मूल वस्तुओं के अधिक से अधिक अपुनरूस साप्त ही भंग हो सकते है। सास्पर्य यह कि वस्तु के प्रत्येक धर्म को लेकर सात प्रकार की जिज्ञासा हो सकती है, सास प्रकार के प्रम हो सकते है अतः उनके उदर भी सात प्रकार के ही होते हैं।
मदिग्दर्शन में श्री राहुली में पाँचव छठवें और सात मंग को जिस भ्रष्ट तरीके से तोड़ामरोषा है यह उनकी अपनी मिरी अस्पना और अतिसाहस है। जब वे दर्शन को व्यापक मई और वैज्ञानिक दृष्टि से देखना चाहते हैं तो किसी भी दर्शन की समीक्षा उसके स्वरूप को हीक समझ कर ही करनी चाहिए। दे अवकम्य नामक धर्म फो जो कि सर के साथ स्वतन्त्रभाव से दिसंयोगी हुआ है, तोड़कर अबक्तध्य करके संजय के 'नहीं' के साथ मेल बैठा देते हैं और संसब के घोर अनित्रयवान को ही अनेकान्तवाद कह देते है! किमायमतः परम् ?
श्री सम्पूर्णानन्दजी जैनधर्म पुस्तक की प्रस्तावना (पृ. ३) में भन्देमन्तवाद की प्रशता स्वीकार करके भी सप्तभकी पाव को बालकी खाल निकालने के समान आवश्यकता से अधिक बारीकी में जाना समझते हैं। पर ससमझी को आज से अटाई हजार वर्ष पहिले के वातावरण में देखने पर वे स्वयं उसे समय की मांग कहे विमा महीं रह सकते । अाई हयार पाई पहिले आबाल गोपाल प्रत्येक प्रक्ष को सहब तरीके से 'सत् असत् उभय और अनुभगा इन चार कोरियों में गूंथ कर ही उपस्थित करसे में और उस समय के भारतीय आश्चर्य उत्तर भी चतुष्कोटि का ही, हाँ या ना में ऐसे थे तर जैन सीथंकर महायोर ने मूल तीन भने के गणित के नियमानुसार अधिक से अधिक सात प्रभ बनाकर उसका समाधान सप्तमी द्वारा किया जो निशितरूप से वस्तु की सीमा के भीतर ही रही है। अनेकांतवाद मे मात के वास्तविक अनेक सत् का अपलाप नहीं किया और न बष्ट केवल कापना के क्षेत्र में विचरा है।
. जैन कथाप्रन्थों में महावीर के बालजीवन की एक घटना का वर्णन आता है कि-'संजय और विजय नाम के दो साधुओं का संशय महावीर को देखते ही हो गया था, इसलिए इसका नाम सन्मति रखा गया यशा' सम्भव है यह संजय विजय से बयवेलाट्ट पुत्त ही हों और इसके संशय या अभिश्चय का नाश महादौर के सप्तभंसी न्याय से हुआ हो और वेलट्रिपुत्त विशेषण हो भ्रष्ट होकर विजय नाम का दूसरा साधु पर गया हो।