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प्रस्तावना
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मेरा उनसे निवेदन है कि भारतीय परम्परा में खाप की भारा है उसे 'दम' लिखते समय भी artम रखें और समीक्षा का स्वम्म तो बहुत सावधानी और उतरदायित्व के साथ लिखने की कृपा करें जिससे न केवल विवाद और भ्रान्त परम्पराओं का अजायबघर न बने। वह जीवन मैं संवाददाता ने सफे इस तरह दर्शन में दर्शन की कार से निकल कर वस्तु सीमा पर खड़े की और वात की दृष्टि दी जिसकी उपासना से दिल अपने वास्तविक रूप को समझ कर निरमंड से बचकर सथा संपादी बन सकता है।
अनेकान्तदर्शन का सांस्कृतिक आधार
ग्य पाप और मोल जैसे प्रतिष्ठित द
में
भारतीय विचार परम्परा में स्पष्टतः दो धाराएँ हैं। एक धारा वेद को मान मानने वाले वैदिक दर्शों की है और दूसरी वेद को प्रमाण न मानकर पुरुषानुभव या पुरुषसाक्षात्कार को प्रमाण माननेवाले. भ्रमण सकी। यद्यपि दर्शनको प्रमाण नहीं मानता किन्तु उसने आत्मा का मस्ति जसे मरण ही कार है। परलोक को तथा संशोधक पारिभादि की उपयोगिता को नहीं किया है अतः अवैदिक होकर भी यह में सम्मिलित नहीं किया जा सकता। धारा वैदिक परम्परा को न मानकर भी आमा, अभित्र शान सदान, पुष्पा परलोक निर्माण आदि विश्वास रखती है, अतः पाणिनिक परिभाषा के अनुसार अस्तिक है। वेद को या ईश्वर की जग मानने के कारण को क कहना उचित नहीं है। क्योंकि अपनी अमुक परम्परा को न मानने के कारण या श्रमण नास्तिक कई आते हैं तो श्रम को न मानने के कारण वैदिक भी आदि विशेषणों से पुकारे गये हैं। का सारा ज्ञान या विस्तार जीवन शोधन या चारिष वृद्धि के लिए हुआ था । वैदिक परम्परा में तवज्ञान को मुक्ति का साधन माना है, न कि धारा में चारित्र को । वैदिकपरम्परा वैराग्य आदि सेशन को पुट करती है, विकारमुद्धि करके मोक्ष मान लेती है जबकि परम्परा कहती है कि उस ज्ञान या विचार का कोई मूल्य नहीं जो जीवन में न उतरे। जिसकी सुवास से जीवनशोधन न हो वह ज्ञान या विचार मस्तिष्क के व्यायाम से अधिक कुछ भी महत्त्व नहीं रखते। परम्परा में सत्र का सूत्र है- “सम्यग्दर्शनज्ञानमारिषाणि मोक्षमार्गः” (तत्त्वार्थसूत्र 11१ ) अर्थात् सम्यग्दर्शनसम्मान पीर सम्मवार की आयपरिनसि मोक्ष का मार्ग है वहाँ मोक्षका साक्षात्कार हैरान तो उसके परिपोषक है। बौद्ध परम्परा का अष्टांग मार्ग भी चारित्र का ही विस्तार है। तपर्य यह कि श्रमारा में ज्ञान की अपेक्षा पारित्र का ही अन्तिममय रहा है और प्रत्येक विचार और शाम का उपयोग चारित्र अर्थात्मशोधन या जीवन मैं समरूप पापित करने के लिए किया गया है। श्रमण सन्तों ने तप और साधना के द्वारा श्रीसरागता की उलट ज्योति की कि में प्रचारित करने के
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की और उसी परमपरागत समता या for fasanear साक्षात्कार किया। इनका साक्ष्म विचार निया शाखार्थ नहीं जीवनद्धि और संसाद या (चाहे वह स्वर पर जंगम हो या
देशीयहोवा विदेशी) देश, काल, शरीरावर के आवरणों से परे होकर स्वरूप से चैतन्य शक्ति का अखण्ड शाश्वत आधार है। वह फर्म या पशु और मनुष्य आरेि शरीरों को धारण करता है, पर होता वहापादि के द्वारा विकृत
कीदा-मकोड़ा, एक भी अंश उसका नष्ट नहीं अपने देश का आदि निमियों कर्म के अनुसार, क्रिय
हो जाता है।
गोरे या किसी भी शरीर को पार किए हो, अपनी वृष्टि या वैश्य और शुभ किसी भी श्रेणी में उसकी गणना व्यवहारस की जाती हो, किसी भी देश में उत्पन्न हुआ
नहीं आधार था, ज्ञान नहीं चारि था, अहिंसा का अन्तिम अर्थ है-जीवमान में हो प्रिय हो या छह गोरा हो या रा दर्शन येक जीव
वासनाओं के कारण
का