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न्यायविनिश्चयविवरण
क्या सर कृष्ण
की कृपा करेंगे कि स्वाहाद मे निथित अनिश्चितयों को पूर्ण सत्य मानने की प्रेरणा कैसे की ? हाँ, वह वेदाश्त की तरह वेतन और अचेतन के काल्पनिक क्षेत्र की दीदी में शामिल नहीं हुआ मीर नही कि समय करने की rs
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देता है जिसकी उपेक्षा की गई हो।
या
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पूर्वन्यरूप से वह कानिक अद घेत अमूर्त मूर्त सभी काल्पबिक रीति से समा जाते हैं। वे स्वाद की के पास लाकर पटना समझते हैं, पर न प्रत्येक वस्तु स्वरूपता अग स्तविक नतीजे पर पहुँचने की असर कैसे कह सकते हैं ? हो, स्वाद्वाद उस विरुद्धका अनेद की ओर वस्तुस्थिति से नहीं जा सकता। वैसे संग्रह की एक satter कमी की है और उस परम संग्रहतय की अभेद दृष्टि से बताया है। कि-'सर्वमेकं सविशेप' अर्थात् एक है, सब से और न में कोई भेद नहीं है। पर यह एक कल्पना है, एक सत् नहीं है मौन्य में अनुगतरता हो। अतः यह सर राधाकृष्णन को चरम अभेद की ही देनी हो तो वे परमसंनय के दृष्टिकोण में देख सकते है, पर यह केवल नाही होनी वस्तुस्थिति नहीं पूर्ण तो वस्तु का अनेकात्मक रूप से दर्शन हैं न कि कामपनिक अगेद का दर्शन |
इसी तरह प्रो० बलदेष उपाध्याय इस स्वान से प्रभावित होकर भी सरका अनुसरण कर स्वाद्वार को मूलभूततश्व ( एक बर १ ) के स्वरूप के समझने में नितान्त असमर्थ बताने का साहस करते हैं। इसने वो वहाँ तक कि विष है कि इस यह व्यवहार तथा परमार्थ चोचीच सत्त्रविचार को विपक्ष के लिए freम्भ तथा विराम देने वाले विश्रामगृह से बढ़कर अधिक महत्व नहीं रखता " ( भारतीय दर्शन पृ० १७३ ) । आप चाहते हैं कि प्रत्येक दर्शन की उस कामसमेत पहुँचना चाहिए पर स्वाद्वाद जब वसुवियार कर रहा है तब वह परमार्थ सत् वस्तु की मानव युतिसिद्ध ही है पर आज के विज्ञान से उसके करण का कोई वास्तविक मूल्य सिद्ध नहीं होता मानने तक का विश्लेषण किया है और प्रत्येक की अपनी तन्त्र सत्ता स्वीकार की है। अतः यदि स्वाद वस्तु की अनेकान्तात्मक समा पर पहुँचाकर बुद्धि को विराम देखा है तो यह उसका भूषन ही है। दिन की उपेक्षा करना मनोरञ्जन से अधिक महत्व की बात नहीं हो सकती ।
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अभेद ने
स्थिति
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इसी तरह श्रीयुत हनुमन्तराय एम. ए. ने अपने "Jain Instrumental heory of Knowledge" नामक में लिखा है किसी का उपस्थित करता है,
पूर्ण सत्य तक नहीं ले जाता । भाषि। ये सब एक ही प्रकार के विचार है जो स्याहार के स्वरूप की न समझने के या प्रस्तुस्थिति की उपेक्षा करने के परिणाम हैं। मैं पहले लिखा है कि--महावीर ने देखा कि स्तुती अपने स्थान पर अपने विराट् रूप में प्रतिक्षित है, उसमें नर्म जो हमें परस्पर विरोधी मान होते है, असे भान है पर हमारी दृष्टि में विशेष होने से हम उसकी स्थिति को नहीं पा रहे हैं। जैन दर्शन बार बहुधा है। यह दो पृथक् स कोहार के लिए कल्पना से अभिन्न कह भी थे, पर वस्तु की निजी मर्यादा का चाहता। जैन दर्शन एकक अपने
वस्तुओं नहीं करना
में कि अनेद को नहीं मानता परिधि कोन कर उसकी सीमा में विश्वकर बरतु की ओर देखने को दर्शन की सरकार दर्शन एक व्यक्ति का एक
पास्तविक अमेो मानता है, पर दो व्यक्तियों इस दर्शन की पट्टी विशेषता है, जो यह परमार्थ सत्य की ही विचार करता है और मनुष्यों को ना की उड़ान से करता है। जिस परम अबेद तक न पहुँचने के कारण अनेका का मुहते हैं उस चरम नमेद को भी मानता है वह उन भेदों को कहता है कि हे अने तो उसका एक धर्म है दृष्टि को और उदार तथा विशाल करके वस्तु के
वस्तु इससे भी बड़ी
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पूर्व रूप की देखो,