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प्रस्थापना
मानने का दिराकरण, शाद के स्वसंवेदन की सिद्धि ज्ञानान्तरवेदज्ञाननिरास साकारशाननस, अचेतनज्ञानविरास, निराकारज्ञानसिद्धि, संवेदनाद्वैदनिरास, विभ्रमणादनिरास, बहिरर्थमिति, विज्ञान खण्डन, परमाणुरूप रहिरथं का निराकरण, अवयवों से भिन्न अयत्री का खण्डन, दृष्य का लक्षण, गुण और का स्वरूप सामान्य का निरास, व्यक्ति से सामान्य कान्दन धर्मकोर्तिसम्म प्रक्षण का खण्डन स्वयं देव-योगि-मानसस्यक्षनिरास, सांख्यकल्पित प्रत्यक्षलक्षण का खण्डम, नैयायिक के अध्यक्ष का समालोचन, अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष का भादियों का विवेचन किया गया है।
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द्वितीय अनुमान 'साध्यसाध्याभास के
अनुमान का सक्षण, प्रत्यक्ष की वरद अनुमान की पहिरविवा पदादि नों में साध्यामयोग की असम्भयता, शब्द का अर्थवादकार, भूतचैतन्यवाद का निराकरण, गुण्ययुर्णिभेद का निराकरण, साध्यसाधनाभास के लक्षण, मदेतु की अनेकान्तसाधकता, सत्य की परिणामांधता पणन अन्यचासुपपतिसमर्थच रुर्क की प्रमाणता, अनुपमन हेतु का समर्थन, पूर्वच उत्तरवर और सहचर देतु का समर्थन, विरुद्ध अनैकान्डिक जोर करों का विवेचन दूपणाभा
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३३.
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लक्ष जयवस्था टान्तासिविचार, धाद का लक्षण निमहस्यानलक्षण, पादाभासलक्ष आदि अनुमान से सम्बन्ध रखने वाले विषयों का वर्णन है ।
तीय जन प्रस्ताव में--प्रवचन का स्वरूप, सुगत के आधत्व का निरास, सुगत के करुणावस्त्र तथा चतुरा सत्य यतिपादक का परिहास, अगम के अपयत्च का खण्डन सर्वज्ञानसमर्थन, ज्योतिनो सत्यमा साईक्षणिकादि विद्या के द्वारा सर्वशत्यविधि, शब्दरास मीयादिप राय भावना की रिता मोक्ष का स्वरूप, सहमंत्री निरुपण स्वाहादने दिये जानेवाले संशयादि दोषों का परिहार, स्मरण प्रत्यविज्ञान आदि का सामान्य प्रमाण का फल आदि forest पर विवेचन है ।
प्रस्तुत न्यायविभिश्वय में तीन प्रकार के का संग्रह है- (१) कार्तिक (२) अन्तरोक (२) संग्रह इस भाग में 'क्षमा' आदि है क्योंकि आगे इसी
पदों का विस्तृत विवेचन है वृद्धि के मध्य में व सत्र मेवाले अन्तरोक हैं तथा कृषि के
इस
(१०२२९)
मूलार्तिक के अर्थ का संग्रह करानेवाले संग्रहष्टोक है। वादि स्वयं "मिराकारेत्यादयः अन्तरश्लोकाः वृत्तिमध्यवर्तिव्यात" विमुखेत्यादि वार्तिकव्याख्यानवृत्तिमन्यमध्यवर्तिनः सत्व लोकाः ..... संमोकास्पतिरम कार्तिका पहरा इति विशेषः " इन शब्दों मैं अन्तर भीर की विशेषता है
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की व्यस्य ववभाग पर तो नहीं ही
है । पयो में भी सम्भवतः कुछ पद्म अध्यायात छू गए हैं। चिनिय की मूलकारिक पृथक
कारिका
रूप से शिखी हुई नहीं मिलतीं।
इन उद्वार विवरण्यात कारिकांशों को जोड़कर किया गया है। अतः जहाँ ये कारिकाएँ पूरी नहीं free उद्धत अंश को [. [] इस किट में दे दिया है। कम्याय में न्यायनिव मूल प्रकाशित हो चुका है। उसमें प्रथम प्रस्ताव में १३९ कारिकाएँ मुक्ति हैं परन्तु इस सब की कारिकाओं को अन्यत्र न्यायविनिश्चय में 'हिताहितासि' (कारिका मं० ४ ) कारिका मूल की समझकर छापी गई है, पर अब यह कारिका वादिराज की कृत ज्ञात होती है। न्यायपनि विवरण (४०१५) लिखा है कि- "करण्यते हि सदान इत्यादिना इन्द्रिय प्रत्यक्षस्य, परोक्षज्ञान प्रस्थादिना अनिन्द्रियप्रत्यक्षस्य लक्षणं सममित्यादिना वाशीन्द्रियप्रत्यक्ष समर्थनम्" इस उल्लेख से शाप्त होता है कि तीनों पक्षों का प्रकारान्तर से समर्थन कारिकाओं किया है लक्षण नहीं। मूहकारिताओं में न सो मद्रिय प्रत्यक्ष का लक्षण है और
का तब केवल विकास क्यों किया होगा ? दूसरे पक्ष में इस शो की माज्या
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