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प्रस्तावना
संजय और युद्ध जिन प्रमों का समाधान नहीं करते, उन्हें अनिश्चय या अध्यात कह कर अपना पिण्ड हुदा लेते है, महावीर उन्हीं का वास्तविक युक्ति संगत समाधान करते हैं। इस पर भी राहुलजी,
और मानन्द फोसबी कादि यह कहने का साहस करते है कि संजय के अनुयायियों के खुए हो जाने पर संजय के राष्ट्र को ही जैनियों ने अपना लिया। यह तो ऐसा ही है जैसे कोई कहे कि भारत में रही परतम्यता की ही परतनाविधायक अंग्रेजो के अछे जाने पर भारतीयों में उसे अपरसरता (स्वतन्यसा) रूप से अपना लिया है, क्योंकि अपस्तन्यता में भी परता ' ये पांच अक्षर तो मौजूद हैं ही। या हिंसा की हद और महावीर ने उसके अनुयायियों के लुस होने पर अहसारूप से अपना लिया है क्योंकि सिंसा
में भी सयेशी अक्षर है ही। यह देखकर तो और भी आश्चर्य होता है कि----आप (पू०४८५) अनिलिलावादियों की सूची में संजय के साथ निग्य नाथपुत्र (महावीर)का नाम भी लिख जाते है, तथा (पृ.११) संजय को अनेकानावी। क्या इसे धर्मफोर्स के वादों में विन व्यापकं तमः नहीं कहा जा सकता
'स्मात शब्द प्रयोग से साधारणतया लोगों को संशय अनिश्रय या संभावना का भ्रम होसा है। पर यह तो भाषा की पुरानी शैली है उस असा की, जहाँ एक पाद का स्थापन नहीं होता । एकाधिक भेद या विकल्प.की सूचना जहाँ करनी होती है यहाँ 'स्था' पद का प्रयोग भाषा की शैली का एक रूप रहा है जैसा कि मनिझमनिकाय के महाराहुलोवाद सुल के निम्नलिखित भवतरण खे ज्ञात होता है-- 'कतमा च राहुल तेजाचातुजोधातु सिया अज्झत्तिका सिया बाहिरा अर्थात् सेजो धातु स्थात् माध्यामिक है, स्थास् बार है। यहाँ सिया (स्थात् ) शब्द का प्रयोग तेजो धातु के निश्चित भेदों की शुरक्षा देता है न कि उन भेदों का संशय अनिश्रय या सम्भावना बताया है। आप्यारिसफ भैय के साध प्रयुक होनेवाला स्यार शब्द इस बात का घोचन करता है कि जो धासु मात्र आध्यात्मिक ही नहीं है किन्तु उससे अतिरिक्त बाह्य भी है। इसी तरह स्वास्ति' में अस्ति के साथ लगा हुआ रथात शरद सूचित करता है कि अस्ति से भिन्न धर्म भी अस्तु में है. फेबल अस्ति धर्म रूप ही वस्तु महीं है। इस तरह 'स्था शारदम शायर कार अनिय का और न सम्भावना का सूचक है किन्तु निधि धर्म के सिवाय आप अशेष थी की सूचना देता है जिससे श्रोसा वस्तु को निर्दिष्ट धर्ममात्र रूप ही न समझ बैठे।
सप्तभंगी--प्रस्तु मूलतः अगम्तधर्मात्मक है। उसमें विभिन्न धियों से विभिन्न विषक्षाओं से अनन्त धर्म है। प्रत्येक धर्म का विरोधी धर्म भी टिभेद से वस्तु में सम्भव है। जैसे 'घटः स्थास्सि में घट है ही अपने पुण्य क्षेत्र काल भाव की मचर से। जिस प्रकार घर में स्वचतुएम की अपेक्षा अस्तित्व धर्म है उसी तरह घटस्पतिरिक्त अन्य पदाधों का नास्तिस्य भी घर में है। यदि घटभिन्न पदार्थों का नास्तित्व घट में न पाया जाय तो घर और अन्य पदार्थ मिलकर एक हो जायेंगे। अंत घट स्यादस्ति और स्थानास्ति रूप है। इसी तरह वस्तु में द्रष्यष्टि से नित्यत्व पर्यायष्टि से अनिस्पक्ष आदि अनेकों विरोधी धर्मयुगल रहते है। एक वस्तु में अमन्त ससमा चनते है। जब हम घर के अस्तित्व का विचार करते है तो अस्तित्वाविषयक सात भङ्ग हो सकते है। जैसे संजय के प्रश्नोत्तर या कुत्रके अप्याकृत प्रश्नोत्तर में हम चार कोटि तो निश्चित रूप से देखते हैं-सत् । असत् , अभय और अमुभय । उसी तरह गणित के हिसाब ले सीम मूर भंगी को मिलासे पर अधिक से अधिक सात अपुमरुक्त भंग हो सकते हैं। जैसे घड़े के अस्तित्व का विचार प्रस्तुत है तो पहिला अस्तिस्य धर्म,सरा तविरोधी नास्तिस्व धर्म और तीसरा धर्म होगा अवक्तव्य जो वस्तु के पूर्ण रूप की सूचना देता है कि वस्तु पूर्ण सा से पचन के भयोचर है। उसके विराट रूपको शब्दही छू सकते । अवमध्य धर्म इस अपेक्षा से हैं कि दोनों धमों को पुगपत् कहनेवाला शब्द संसार में नहीं है अतः मस्तु यथार्थतः घममासीत है. अवमय है। इस तरह मूल में तीन माहैस्थादरिस पर २ स्थानास्ति स्ट
३ स्थादवचम्मी घर: ' अवरहस्य के साथ स्यात् पद खाने का भी अर्थ है कि वस्तु भुगपत् पूर्ण रूप में पदि अषसध्य है सो नमशः अपने अपूर्ण रूप में वक्तव्य भी है और वह अस्ति मास्ति आदि रूप से यथयों का विषय