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प्रस्तावना
यतिमेव से अनन्त हो सकते है। फिर अपने अपने अभिपात्र से वस्तुनिषेचन करनेवाले शब्द भी ममन्त्र है। एक वैज्ञानिक अपने रटिकोण को दी पूर्ण सत्य मानकर कचिया पेन के रष्टिकोण या अभिमाय को पस्तुलस्त्र का अग्राहक या असत्य ठहराता है तो वह यथार्थदष्ट नहीं है, क्योंकि पुष्प तो अखण्ड भाव से सभी के दर्शन का विषय हो रहा है और उस पुष्प में भनन्त अभिमायों या रधिकोणों से देखे जाने की योग्यता है पर दृष्टिकोण और सरयुक्त अन्य तो अखे जुद है और वे आपस में टकरा भी सकते हैं। इसी स्कराहट से दर्शनभेन उत्पन्न हुआ है। सब दर्शन शब्द का क्या अर्थ फलित होता है जिसे हरएक दर्शनशादियों ने अपने मत के साथ जोड़ा और जिसके नाम पर अपने अभिप्रायों को एक दूसरे से टकराकर उसके नाम को कलंकित किया। एक बाद अब लोक में प्रसिद्धि पा लेता है तो उसका लेबिल तदामासमिष्पा वस्तुओं पर भी लोग समाकर उसके माग से स्वार्य साधने का प्रयास करते हैं। जब जनता को ठगने के लिए खोली गई दुकान भी राष्ट्रीय-भण्डार और अमता-पहर का नाम धारण कर सकती है और गान्धीछाप शराब साया है।तो दर्शन के नाम पर यदि पुराने जमाने में तयामास चल पड़े हाँसो कोई आक्ष की मात नहीं। सभी दार्शनिकों ने यह दावा किया है कि उनके ऋषि ने दर्शन करके नत्य का प्रतिपादन किया है। ठीक है, किया होगा?
दर्शन का एक अर्थ है-मायायलोसम । इन्द्रिय और पदार्थ के सम्पर्क के बाद जो एक बार ही वस्तु के पूर्ण रूप का अखण्ड या सामान्य भाव से प्रतिमास होता है उसे शास्त्रकारों ने निकालय दर्शन मामा है। इस सामान्य दर्शन के अनम्तर समस्त शगों का मूल विकल्प आता है जो उस सामान्य प्रतिभास को अपनी कल्पना के अनुसार चित्रित करता है।
धर्मकीर्ति आचार्य प्रमाणवार्तिक (३५४) में लिखा है कि
"तस्माद्रस्य भावस्य दृष्ट एवाखिलो गुणः ।
भ्रान्तेनिश्चीयते नेति साधनं सम्प्रवर्तते ॥" अर्थात वर्शन के बारा प्रष्ट पदार्थ के सभी गुण दृष्ट हो जाते हैं, उनका सामान्यावलोकम हो जाता है। पर श्रान्ति के कारण उनका निक्रय नहीं हो पाता इसलिए साधनों का प्रयोग करके वरमों का निर्णय किया जाना है।
यह कि-दीन एक ही बार में वस्तु के असपड स्वरूप का अवलोकन कर लेता है और इसी अर्थ में यदिदर्शनशास्त्र के दर्शन शब्द का प्रयोग है तो मतभेद की गुंजाइश रह सकती है क्योकि यह सामान्यावलोकन प्रतिनियत अर्थक्रिया का साधक नहीं होता। अर्धकिया के लिए सो सदशों के निश्चय की आवश्यकता है। अतः असली कार्यकारी सो दर्शन के बाद होनेवाले शब्दप्रयोगवाले विकराए हैं। जिन विकल्पों को दर्शन का पृष्ठवल प्राक्ष है ये प्रमाण है सपा जिन्हें दर्शन का पुटवल प्रास नहीं है अर्यात् जो दान के विमा मात्र कल्पमागसूत है वे अममाण हैं। अतः यदि दर्शन सबद को आत्मा आदि पदार्थों के सामायावलोकम अर्थ में लिया जाता है तो भी मतभेद की गुंजाइश कम है। भतभेद सो उस सामाग्यावलोकन की वाया और निरूपण करने में है। एक सुन्दर सी का सूच शरि देखकर विरागी मिक्ष को संसार की असार मा की भाममा होती है। कामी पुरुष उसे देखकर सोचता है कि कदाचित यह जीवित होती... सो कुता अपना भक्ष्य समझकर प्रसक होता है। यद्यपि दर्शन तीनों को हुआ है पर व्याख्याएँ जुदी जुदी है। हातक वस्तु के दर्शन की बात है यह विवाद से परे है। पाद सो सम्वों से शुरू होता है। पयपि दर्शन घस्तु के बिना नहीं होता और वही दर्शन प्रमाण माना जा सकता है जिसे अर्थका बह प्राह हो अर्थात् जो पदार्थ से उत्पस हुआ हो। पर यहाँ भी कही विवाद उपस्थित होता है कि कौम । दर्शन पवाध की सप्ता का अजिनाभावी है तथा मौन कार्य के बिना नोवल काल्पनिक है। प्रत्येक यही कहता है कि हमारे दर्शन ने आत्मा को उसी प्रकार देखा है जैसा हम कहते हैं, तब यह निर्णय से हो कि यह दर्शन यास्तविक असमुदत है और यह दर्शन मात्र कपोलकलित ? निर्विकल्पक चांव को