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न्यायविनिश्चयविवरण क्या अन्तर है? सिवाय इसके कि संक्य फकद की तरह खरी खरी सात कह देता है और बुद्ध बड़े आदमियों की सालीनता का निर्वाह करते हैं।
बुद्ध और संजय ही क्या, उस समय के वातावरण में आत्मा लोक परलोक और मुक्ति के स्वरूप के सम्बन्ध में-है (सत्), नहीं (अस), है नहीं (सदसत् उभय),न हैन नहीं है (अमात्य था अनुभय)।' थे चार कोटियाँ गूंज रही थीं। कोई भी प्रानिक किसी भी तीर्थकर या आचार्य से विना किसी संकोच के अपने प्रभ को एक साँस में ही उक्त चार कोलियों में विभाजित करके ही पूलता था। जिस प्रकार आज कोई भी प्रभ मजदूर और पूंजीपति शोषक और शरेय के हवं की अथा में भी सामने आता है, उसी प्रकार उस समय आमा आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के प्रश्न सत् असत् उभय और अनुभय-अनिर्वचनीय इस धनुरकोटि में आवेष्टित रहते थे। उपनिषद या ऋगवेद में इस चतुष्कोदि के दर्शम होते हैं। विष्य के स्वरूप के सम्बन्ध में असत् से सत् हुआ? या स्तू से सत् शुधा? या सदसत् दोनों रूप से अनिर्वचनीय है ? इत्यादि प्रश्न उपनिषद् और वेद में बराबर उपलब्ध होते हैं। ऐसी दशा में राहुल जी का स्थानाद के विषय में यह फतवा दे देना कि संजय के प्रभों के शब्दों से या उसकी चतुर्भजी को तोड़मरोड़ कर सहभही घनी--कहाँ तक उचित है यह वे स्वयं विशएँ। बुद्ध के समकालीन सो छह तार्थिक थे उनमें महावीर निगाठ नाथपुत्रकी, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी के रूप में प्रसिद्धि थी। वे सर्वज्ञ और सर्वद घे या नहीं रह इस समय की रमा का विषय नहीं है, पर वे विभिध तवविचारक थे और किसी भी प्रश्न को संजय की तरह अनिश्रय फोरि या विशेष कोटि में या युद्ध की सरह अव्याकर कोटि में पलने वाले नहीं थे और न शिष्यों की सहज जिज्ञासा को अनुपयोगिता के भयप्रद कर 'में खुम्चा देना शहते थे। उनका विश्वास था कि संघ के पंचमेल कि जब तक वस्तुसरन का ठीक निर्णय नहीं कर लेते तब तक उनमें बौद्धिक दृढ़ता और मानसपल नहीं आ सकता । रेल भरने समानदरीत अन्य संध के भिक्षुओं के सामने अपनी बौद्धिक वीनसा के कारण हत्तप्रभ
र ARR EE ON आधार पर आये बिना नहीं रहेगा। वे अपने शिष्यों को पवन्द पनियों की तरह जनत के स्वरूप विचार की बाळ हवा से अपरिचित नहीं रखना चाहते थे, किन्तु वाहते थे कि प्रत्येक प्राणी अपनी सहज जिज्ञासा और मनमशक्ति का वस्तु के यथार्थ स्वरूप के विचार फी और साधे। न उन्हें बुद्ध की तरह यह भय पामं घा कि यदि आत्मा के सम्बन्ध में हैं। कहते हैं तो साक्षताद अचात् उपनिषद्वादियों की तरह लोग नित्यत्व की ओर झुक जायेंगे और नहीं कहने से उपवाद अर्थद चावांक की तरह नास्तिर का प्रसंग पास होगा । अत: इस प्रक्ष को अव्याकृत रखना ही श्रेष्ट है। वे चाहते थे कि मौजून तकों का और संगायों का समाधाम वस्तुस्थिति के आधार से होना ही चाहिये । अतः उन्होंने वस्तुस्वरूप का अनुभव कर यह बताया कि जगत् का प्रत्येक सत् प्राई वाह क्षेतमजातव्य हो या अधेतनजातीय परिवर्तनशील है। वह निसर्गतः प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है। उसकी पर्याय बबलती रहती है। उसका परिणमन कभी सरश भी होता है कभी विसष्टा भी। पर परिणामनसामान्य के प्रभाव से कोई भी अछूता नहीं रहता। यह एक मौलिक नियम है कि किसी भी सन का विश्व से सर्वथा उच्छेद नहीं हो सकता, यह परिवातत होकर भी अपनी मौलिकसा या सत्ता को नहीं खो सकता । एफ परमाणु है वह हालोजन बम जाय, अस वन जाय, भाप बन जाय, फिर पानी हो जाय, पृथियी बन जाय, और अनन्त आकृतियों या पयायों को धारण कर ले, पर अपने प्रयत्व मा मौलिकरक को नहीं सो सकता। किसी की ताकत नहीं जो उस परमाशु की इस्ती या अस्तित्व को मिटा सके। तात्पर्य यह कि जगत् में जितने 'सत्' हैं उतने बने रहने । उममें से एक भी कम नहीं हो सकता, एक दूसरे में विलीन नहीं हो सकता। इसी तरह न कोई नया 'सत्' उत्पम हो सकता है। जितने है उसका ही आपसी
खाते और
प्रो. धर्मानन्द कोसी ने संजय के बाद को निक्षेपवाद संज्ञा दी है। देखो भारतीय अहिसा पु.४५