Book Title: Nyayavinishchay Vivaranam Part 1
Author(s): Vadirajsuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 10
________________ १२ Preferrश्चयविदरभ ज्ञान पर्याय के द्वारा अवश्यम्भावी है। ज्ञान पर्याय की उत्पत्ति का जो क्रम टिप्पणी में दिया है उसके भनु सार भी जिस किसी वस्तु के पूर्णरूप तक शमपर्याय पहुँच सकती है यह निर्विवाद है जब ज्ञान के अनन्तधर्मात्मकविरा स्वरूप का वथार्थ ज्ञान कर सकता है और यह भी असम्भव नहीं है कि किन्ही भाषा ऐसी ज्ञान पर्याय का विकास हो सकता है वस्तु के पूर्णरूप के साक्षात्कारविपद प्रथम का समाधान हो ही जाता है अर्थात् विशुद्ध शाब में वस्तु के विराट् स्वरूप की झांकी जा सकती है और देखा दि ज्ञानों का रहा होगा। परन्तु वस्तु का जो स्वरूप ज्ञान में झलकता है उस सब का से कथन करना असम्भव है क्योंकि शब्दों में वह शक्ति नहीं है जो अनुभव को अपने द्वारा जता सके। सामान्यतया यह तो निति है कि वस्तु का स्वरूप ज्ञान का शेप तो है जो भिन्न भि शाओं के द्वारा जाना जा सकता है वह एक ज्ञाता के द्वारा भी निर्मल ज्ञान के द्वारा जाना जा सकता है। तापर्य यद कि वस्तु काण्ड विराट्रूप रूप से ज्ञान का विषय जो मन जाता है और वह भाचियों से अपने मानसज्ञान और दोविज्ञान से उसे जाना भी होगा। परन्तु द की साम इतनी है कि जाये हुए वस्तु के धर्मो में भगत बहुभाग तो अनभव है अर्थात् शब्द से बड़े ही नहीं जा सकते को कहे जा सकते है उनका अनन्तक भाग ही मापनीय अ दूसरों के लिए सहायक होता है । जितना प्रज्ञापनीय है इसका होता है। अतः कदाचित् दर्शनमा ऋषियों ने भाग शब्द श्रुतनिय को अपने निर्मल शान से अण्डरूर जाना भी हो तो भी एक ही वस्तु के जानने के भी दृष्टिकोण जुटे जुये हो सकते हैं। एक ही एक को वैज्ञानिक साहित्यिक, आयुर्वेदिक तथा जनसाधारण भाखों से समग्र भावसे देखते हैं पर वैज्ञानिक उसके सो पर मुग्ध न होकर उसके रासायनिक संयोग पर ही विचार करता है। कषि को उसके रासायनिक मिश्रण की कोई चिन्ता नहीं, कल्पना भी नहीं, यह तो केवल उसके सौन्दर्य पर मुग्ध है और पद किसी क कामिनी के उपमाकार में गूंधने की कोमल से आधित हो उस्ता है। जबकि उसके तुदोषों के निधन में अपने मन को कर देते हैं पर सामान्य जन उसकी रोमी रोमी मोहक पास से वासित होकर ही अपने पुष्पज्ञान को परिसगाडि कर देता है सार यह कि वस्तु के अन धर्मादिस्वरूप का अभाव सेशन के द्वारा प्रवास होने पर भी उसके विवेचक अभिप्राय I के साथ ही इस चैम्बराफिक कई कां की तरह दर्पण परिणमन हो गया है। इस परिणमनबसने समय तक वह चैतन्य दर्पण लेता है अर्थाद उसे जानता है तब तक उसकी वह साकार दशा ज्ञान कहलाती है और जितने समय उसकी निराकार दशा रहती है वह दर्शन कही जाती है। इस परिणामी चैतन्यका सांय के चैतन्यसे भेद है। चैतन्यदा अधिकारी परिणमनशून्य नौर कूetr free t we fa जैनका चैतन्य परिणमन करनेवाला परिणामी निल सायके यहाँ प्रकृतिका धर्म है कि जेम्यान चैतन्यकी ही पर्याय हैं का चै संसार दशा में भी गाकार परिछेद नहीं करता अब कि जैम चैतन्य उपाधि होता है उन्हें जमता है। स्थूल मेद तो यह है कि इन जैनके यहाँ चैतन्यकी पर्याय है 1 वाकार परिगत अम कि सांय के यहाँ प्रकृतिकी। इस तरह ज्ञान चैतन्यको भौधिक पर्याय है और यह संसार दशाने बराबर भा होती और जब पर्याय होती होती है तब दर्शन पर्यायीको होमादि हरये आत करते हैं और इनके अनुसार इनका पूर्ण और पूर्ण विकास होता है। संखारावस्थामें जम शानावर एका पूर्णक्षम हो जाता है उम चैतन्यशर पर्यायान अपने पूर्ण रूपमें विश्वासको शप्त होती है। मदन] अवस्था होती है तब म भरस्था नहीं उर्वाय नहीं। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म इन् पाम और नवनिमा भाषा अभागी मेल पण ड भवभायो सुनिन३३ ।

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