Book Title: Nyayasangrah Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad View full book textPage 7
________________ ( न्यायसंग्रह का एक अनूठा विवेचन ) कालक्रम से भारत में संस्कृत व्याकरण की अनेक परम्पराओं का उदय हुआ, उसमें पाणिनीय व्याकरण परम्परा अत्यंत प्राचीन है। तत्पश्चात् शाकटायन, चान्द्र, कातंत्र, कालाप, जैनेन्द्र, भोज एवं सिद्धहेम आदि प्रमुख व्याकरणों की रचना हुई और उनकी परम्परा भी चली । व्याकरणशास्त्र में निर्दिष्ट सूत्रों द्वारा रुपसिद्धि के अवसर पर जब एकाधिक सूत्रों की प्रवृत्ति का प्रसंग उपस्थित हो तब अनिष्ट रुप साधक सूत्रों की निवृत्ति के लिए सूचित सूत्र को न्याय/परिभाषा कहते है । व्याकरणशास्त्र के अध्येता के लिए न्याय/परिभाषा का ज्ञान होना अत्यावश्यक है अन्यथा व्याकरणशास्त्र का सम्यक् बोध नहीं हो पाता । अतः प्रायः सभी व्याकरण परम्परा में परिभाषा प्राप्त होती है। पाणिनीय परम्परा में परिभाषा शब्द का प्रयोग हुआ है जबकि सिद्धहेम परम्परा में उसी के लिए न्याय शब्द का प्रयोग हुआ है । पाणिनीय परिभाषा के ऊपर बहुत कुछ कार्य हुआ है किन्तु सिद्धहेम के न्याय/परिभाषा के ऊपर अद्यावधि तुलनात्मक दृष्टि से कोई कार्य हुआ नहीं था, इस कमी की पूर्ति प्रस्तुत विवेचन से हो रही है। कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रचार्यविरचित श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन में निर्दिष्ट न्याय एवं अन्य न्यायों का संकलन वाचक श्रीहेमहंसगणिकृत 'न्यायसंग्रह' में पाया जाता है । तदुपरि महामहोपाध्याय, पंडितप्रवर, व्याकरणाचार्य श्रीहेमहंसगणि ने स्वयं 'न्यायार्थमञ्जूषा' नामक बृहवृत्ति व स्वोपजन्यास की रचना की है । प्रस्तुत वृत्ति सरल होते हुए भी उसमें व्याकरण के अनेकानेक सूत्रो की साधक -बाधकता सम्बन्धी चर्चा प्राप्त होती है । उस पर सुप्रसिद्ध जैनाचार्य शासनसम्राट श्रीविजयनेमिसूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर महान् वैयाकरण न्यायाचार्य श्रीविजयलावण्यसूरिजी महाराज ने 'न्यायार्थसिन्धु' व 'तरङ्ग' नामक दो वृत्तियाँ रची है । ये वृत्तियाँ विस्तृत होते हुए भी परिष्कारशैली से युक्त होने के कारण सुगम नहीं है । अतः न्यायसूत्रों को समझाने के लिए एक सुगम विवेचन की आवश्यकता थी । इस आवश्यकता महेसूस करते हुए उक्त आचार्यदेव शासनसम्राट् श्रीविजयनेमि सूरिजी महाराज की ही भव्य परम्परा में हुए आचार्य श्रीविजयसूर्योदयसूरिजी महाराज के विद्वान शिष्य मुनिराज श्रीनन्दिघोषविजयजी ने प्रस्तुत हिन्दी विवेचन की रचना की है। __यह विवेचन अपने आप में एक विशिष्ट विवेचन है । यह केवल मूल ग्रंथ का अनुवाद मात्र नहीं है अपितु सिद्धहेमशब्दानुशासन का पूर्ण परिशीलन एवं उसके ऊपर लिखे गए उपलब्ध सभी ग्रंथों का सूक्ष्म अवलोकन करके लिखा गया विवेचन है। प्रस्तुत ग्रंथ में मूल न्यायसूत्र का अर्थ, व्याख्या व विवेचन किया गया है । विवेचन करते हुए सभी सूत्रों की सार्थकता, साधकता, बाधकता इत्यादि की चर्चा की गई है । सूत्र में निर्दिष्ट सभी पदों की व्याख्या एवं न्याय का रहस्य उजागर किया गया है । इसके लिए सिद्धहेमबृहद्वृत्ति, बृहन्न्यास, लघुन्यास आदि व्याकरण साहित्य का तत्तत् स्थानों पर उपयोग किया गया है । तत्पश्चात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 470