Book Title: Nayakumarchariu
Author(s): Pushpadant, Hiralal Jain
Publisher: Balatkaragana Jain Publication Society

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Page 177
________________ [9. 21. 20 पुप्फयंतविरइयउ सुकत्तियसाढ सफग्गुणगाढ । तिमज्झहं इक्क सुपंचमि सुक्क। सुपंचवरीस समाससरीस। अहद्द जि पंच समास वि पंच। तिभेय चरीय करंति सुधीय । पडिम्मड पंच वरेवि वरं च। सवत्थ सपोत्थ मुणीहिं महत्थ। समप्पण कीय सुभत्तीए तीय। सुकंतिय पंच सुचत्तपवंच। परीहणवत्थ तहे व पसत्थ। चउविहसंघे सुवाहिदुलंघे। हणेवयकजे भवीयणपुजे। सुभेसहु दिति विणीय णयंति। महापडिवित्त सुसोहियणेत्त। उलोव वि चित्त सुचित्त विचित्त । समुज्जलघंट सुसद्द टणंत। उवोवरण पयारियसट्ट। सुतारियचंद चंदोवय रुंद। ससंघहो भोज्नु रसालु मणोजु । पयंति मुभर्बु करेइ ण गब्बु। विहीए करंतु फलेइ तुरंतु। सुची सुखेत्ते सुदिण्ण पयत्ते। घत्ता-मुणि अक्खड़ कह जाम तहिं पोसहु वरमहिमउ सम्मत्तई। दसणणाणचरित्तसमतवधम्मत्थ जेम जिणतत्तई ॥ २१॥ ४ E पवंच. ५ C सपुत्थु. ६ A सुसत्तिए. ७ CE चित्त. ८E सुचित्तविचित्त उलोयविचित्त. ९ E पयंतु. १० CE ससव्वु. ११ 13 सुछीउ; DE सुवीउ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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