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१५ ७. कोई भी मत सर्वथा झूठा नही
१. पक्षपात व एकान्त
यावंतो वचनपंथा तावंतश्चैव भवन्ति नयवादाः । यावंतो नयबादास्तोवंतस्चैव भवन्ति पर समयाः ।। ८९४ ।। पर समयाना वचनं मिथ्या खलु भवन्ति सर्वथा बचनात् जैनाना पुनर्वचन सम्यक् खलु कथंचिद्वचनात् ॥ ८९५ ।।
अर्थ --- पर समयी जिस वचन को कह रहे है तिस ही को सर्वथा एकान्तपने कर कहे है । तिसके प्रतिपक्षी को नाही कहे है । पर वस्तु है सो तिस रूप भी है और तिस के प्रतिपक्षी स्वरूप भी है । तातै तिनि का वचन असत्य है । जिस वचन को जैनी ( अनेकान्तवादी) कह है, तिसको कोई एक प्रकार करि कहे हैं सर्वथा नियम नाही कहे हैं । वस्तु भी तिस रूप कोई एक प्रकार करि ही है । तातै जैनी के वचन सत्य है ।
सत्यता को असत्य बताने का प्रयोजन नही है बल्कि दूसरे मत का निषेध करने का जो कदाग्रह वर्त रहा है उसे असत्य बताया जा रहा है । उस मत का निषेध नही, कदाग्रह का निषेध है ।
अब तुझे यह देखना है कि कही मेरे अन्दर तो इस प्रकार का कोई कदाग्रह नही पड़ा है । सो शब्दों पर से निर्धारित नही किया जा सकता । शब्दो मे पूछने पर तो में अनेकान्तवादी हूँ ही । अनेकान्तवादियो का शिष्य जो हूँ | जैन मत अनेकान्त मत है और में भी जैनी हूँ । इसलिये
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मेरी तो सब बाते सत्य ही है । ऊपर नियम जो बना दिया गया है कि जैनियों की बात सच्ची और अन्य की बात झूठी । प्रभो ! ऐसा अर्थ -करने का प्रयत्न न कर। यहां सम्प्रदायिकता को अवकाश नही । जैन सम्प्रदाय जैन मत नही है अनेकान्तिक धारणाओं का नाम जैन मत है । मत अनेकान्त अवश्य है, पर मै अनेकान्तिक हूँ या नही, विचार तो इस बात का करना है । वास्तव मे अनेकान्तिक नही हूं | क्योंकि यदि हुआ होता तो किसी का भी निषेध न करता, सब को यथायोग्य रूप से