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१. पक्षपात व एकान्त
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६. आगम में सब कुछ नही
तो पता चलेगा कि कितनी विपत्तियां इस साहित्य के ऊपर आज तक आ चुकी है । यही सौभाग्य समझिये कि यह कुछ बचा खुचा भाग किसी प्रकार अवशेष रह पाया है । तात्पर्य यह कि उस लिपिबद्ध का वहु भाग' साम्प्रदायिक विद्वेष की ज्वाला मे स्वाहा हो चुका है । आपके शास्त्रो को जला जलाकर हमाम गर्म किये गये है | कैसे कह सकते हो कि इस आगम से बाहर कोई बात आपके हृदय या मेरे हृदय मे नही आ सकती है । भाई ! अब कदाग्रह को छोड़ जीवन मे कुछ - करने की भावना उत्पन्न कर" ।
उपरोक्त सर्व कथनपर से ऐसा अभिप्राय ग्रहण न कर लेना कि मै आगम का निषेध कर रहा हू । यह बात तो तीन काल मे भी होनी सभव नही है । आगम का ही उपकार है, जो मै यह स्वतंत्र दृष्टि की बात कहने का साहस कर रहा हूँ । क्योकि जो सिद्धान्त यहां पढाया जाना अभीष्ट है वह स्वयं स्वतंत्रता के पोषणार्थ, कदाग्रह के निराकरणार्थ व विचारज्ञ बनने की प्रेरणार्थं ही है। किसी भी बात का निर्णय करने के लिये आगम ही अल्पज्ञी का मुख्य आधार है । इसके विना हमारे लिये सर्वत्र अधकार है । परन्तु कहने का तात्पर्य तो यह है कि कदाचित् कोई बात ऐसी अपने विचार मे स्वय आ जाये या किसी से सुनने मे आ जाये जिसका जिक्र आगम मे न मिले, तो उस को निरर्थक समझकर छोड़ नहीं देना चाहिये, बल्कि युक्ति व अनुभव से उसका भी निर्णय करने का प्रयत्न करना चाहिये और इस प्रकार बराबर आध्यात्मिक विज्ञान के साहित्य को वृद्धि दान देते रहना चाहिये । हां ! अनुभव किये बिना केवल कल्पना के आधार • पर कुछ कहना व लिखना योग्य नही, क्योकि उससे कदाचित् भव्य प्राणियों का अहित हो सकता है ।