________________ 'आत्मख्याति' ग्रन्थ के सम्बन्ध में संक्षिप्त विचारणा (हिन्दी में). ले. मुनि श्रीयशोविजय નેંધ –આ પુસ્તકમાં ન્યાયની છ કૃતિઓનો ગુજરાતીમાં પરિચય આપ્યા પછી હવે હિન્દીમાં આપીએ છીએ. સં. 'आत्मख्याति' ग्रन्थ में उपाध्यायजी भगवन्त ने जिन-जिन विषयों का प्रतिपादन किया है उनमें मुख्यतः कौन-कौन से विषय आते है, उनकी संक्षिप्त झांकी यहां प्रस्तुत करता हूं। 1. 'आत्मा का अथवा इस नाम के स्वतन्त्र पदार्थ का अस्तित्व है' ऐसा सभी आस्तिक 'चार्वाक आदि नास्तिक दर्शनों को छोड़कर) दर्शन मानते है तथा 'आत्मा चैतन्य शरीर में ही रहते हुए भी सर्वथा भिन्न पदार्थ हैं' इस बात की भी स्वीकृति देते है। किन्तु आत्मा का परिमाण कितना है ? इस सम्बन्ध में मतमेद है। कुछ चिन्तक 'आत्मा विभु है अर्थात् परम महत्त्व परिमाण वाला है और इससे वह व्यापक है, ऐसा मानते है / कतिपय चिन्तक 'मध्यम परिमाणवाला है' ऐसा मानते है / उपाध्यायजी ने भिन्न-भिन्न दार्शनिकों की विविध मान्यताओ का खण्डन करके प्रमाणित किया। है कि 'आत्मा विभु नहीं है, परम महत्त्व परिणामवाला भी नहीं है। आत्मा तो (देहधारी अवस्था की दृष्टि से) स्वशरीर परिमाणवाला है / वह जिस-जिस योनि में जाता है वहां वहां छोटा अथवा वड़ा, जैसा-जैसा शरीर प्राप्त होता है वैसे ही शरीर में व्याप्त होकर वह रहता है। शरीर से बाहर (अवकाश में) फैलकर कभी नहीं रहता है। इस प्रकार शरीरधारी आत्मा को लक्ष्य में रखकर यह बात कही गई है। शेष सूक्ष्म शरीरधारी (तेजस कार्मण) आत्मा का प्रमाण एक अंगुल के असंख्यातवें भाग का भी होता है।' .. 2. नैयायिक समवाय को पृथक पदार्थ मानते है। जबकि जैन समवाय को स्वतन्त्र पदार्थ नही मान ते हैं, इसी लिये उनके मत का खण्डन किया है। जैन समवायसम्बन्ध के स्थान पर भेदाभेद' अथवा 'अविश्वगभाव सम्बन्ध' मानते है और यह बात उन्होंने तर्कादि से सिद्ध की है। 3. जैनदर्शन आत्मा को नहीं अपितु संसारी जीवात्मा को उत्पत्ति, विनाश तथा ध्रौव्य से युक्त मानता है। इससे तात्पर्य यह है कि आत्मा अपेक्षासे नित्य और अनित्य दोनों प्रकार का होने से नित्यानित्य से पहचाना जाता है। साथ ही जैनदर्शन आत्मा को शाश्वत नित्यद्रव्य मानता है पर कहां तक, जब वह मुक्तात्मा न हो नब तक वह संसारी अवस्था वाला है। और संसार में रहने वाला होने से उसे किसी जन्म में देहधारी के रूप में रहना ही पड़ता है। शरीर भले ही वदले किन्तु शरीर में रहनेवाला नहीं बदलता. वह तो अनादि काल से एक ही है. तथा वह अनन्तकाल तक रहने वाला है / अत: आत्म द्रव्य शाश्वत्-ध्रुवद्रव्य है /