Book Title: Navgranthi
Author(s): Yashodevsuri
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti

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Page 271
________________ विचारविन्दु "सह कामेन निर्जरा मे भूयादित्यभिलाषेण युक्ता सकामा" -इति योगशास्त्रवृत्तौ [ ] / "सकामणिज्जरा पुण णिज्जराहिलासीण'-समयसारे [अ-६] इत्यादि // 32 // मिथ्यादृष्टिनई सकामनिर्जरा होई तो सम्यग्दृष्टिथी श्यो विशेष इम कोइ कहई छई, तेणि मिथ्यादृष्टिनई शुक्ल छेश्या सद्भाविई, केवलीथी श्यो विशेष एहवो पणि संदेह धरवो // 33 // - मिथ्यादृष्टिना गुण अनुमोदतां परपाखंड प्रशंसारूष अति चार थाई, इम कोई कहई छई ते जूहूँ, जे माटइं-जे रूपई पाखंडता ते रूपई प्रशंसाइज अतिचार होइं, पणिं ते माहिला गुण प्रशंसतां न होइ, जिम प्रमादोनइ प्रमादीपणि प्रशंसतां अतिचार, पणि तेहनी सम्यक्त्वादि गुण प्रशंसतां अतिचार नहीं // 34 // हीन मिथ्यादृष्टिनो गुण सम्यग्दृष्टि उच्चगुणस्थानवर्ती किम प्रशंसइ, इम जे कोइ शंकित . थाइ छई, तेहनइ मतइं तीर्थकरनइ कोइना गुण प्रशंस्या न जोइंइ, जे मार्टि सर्व तीर्थकरथी हीणा छैई // 35 // ____ 'कविला इत्थंपि इहयंपि' [ ] ए मरीचिनु वचन उत्सूत्रमिश्र कहिइं पणि उत्सूत्र नहिं, जे माटि-मरीचिनइ देशविरतिनइ अभिप्रायि ए सत्य छई, कपिलनइ परिव्राजकदर्शनोदयतानि अभिप्रायइ असत्य छई, एहवं जे कहै? कोई कहई छइ ते अशुद्ध-जे माटि-उत्सूत्रकथनाभिप्रायक मायानिश्रित असत्य वचन ज ए छइ, आपेक्षिक सत्यासत्यभावइ उत्सूत्रमिश्र कहिई तो स्वपर नयाभिप्रायई भगवद्वचन पणिं तथारूप होइं तथा श्रुतभावभाषामिश्ररूप दशवैकालिकनियुक्ति निषेधो छई, तो उत्सूत्रमिश्र किम कहिई // 36 // 'दुष्भासिएण इक्केण' [आव. नि. गा. 432] इत्यादि वचनई * मरीचिवचन दुर्भाषित कहिइं पणि उत्सूत्र न कहिई ! इम कोइक शब्दमात्रइ भ्रम धारइ छई ते जूट्ठो-जे मार्टि 'दुर्भाषितमनागमिकार्थोपदेशं' [ ] इम पंचाशक वृत्तिमध्ये कहिइ छई ___ 'दुष्भासियं उस्सुत्तं ति एगट्ठा' तच्चूर्णौ भगवानपि भुवनगुरुरुन्मार्गदेशनादित्यादि योग: शास्त्रवृत्तौ // 37 // उत्सूत्रलेश वचनथी उत्सूत्रमिश्र जे मरीचिनइ कहई छई. तेणइ 'जो चेव भावले सो' [...] इत्यादि वचनथी, द्रव्यस्तवमांहि पणि भावमिश्र पक्ष प्रहिमो जोइंइ // 38 // 'जमालिनिमववत् सर्वज्ञमतविगोपको विनङ्ख्यत्यरघट्टघटीयन्त्रन्यायेन संसारचक्रवालं विभ्रमिष्यतीत्यादि [ ] सूत्रकृतवृत्तिवचनइ जमालिनइ अनंत संसार कोइक कहइ छई, ते न घटई, जे माटई हिंसाफ पणि भरघट्टघटीयंत्र न्यायइ संसारपरिभ्रमण आचारवृत्ति कहिउं छई, अनई दृष्टान्तमात्रइं अर्थसिद्धि थाई तो-'इच्चेयं दुवालसंगं गणिपिडगं, तीए काले अणंता जीवा

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