Book Title: Navgranthi
Author(s): Yashodevsuri
Publisher: Yashobharti Jain Prakashan Samiti
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________________ उपाध्याययशोविजयविरचित नई बीजा नै तारे, ते वाहणमा निर्यामक छई, निर्यामक कोहनई कहीई, जे वाहणना पेडु ते निर्यामक, ते वाहण केहुं पंच महाव्रतरूपोमें वाहण, धैर्यरूपी से वाहणनो कुआथं भौ, ते कुआ थभी आधार विना रहइ नही, ते आधार कुण छै ? संयम सत्तर भेदरूपीयां डोरडां, तिणें करी डोरडां बांध्यां छइं, स्यणई, ते कुआ थंभई / हिवे ते वाहणनै सढ जोईई, ते सढमें पवन भराई, तिवारइं वाहण चालई, ते सढ ईहां कौण छै ! दशविधि जतीधर्म. ते दशविध जतीधर्म केहो ? शिष्ये पछयु-तिवारें गुरु कृपा करीने शिष्यने कहे छई, सांभल शिष्य, जोग थीर करो, ते जोग किहा, मन वचन काय जोगथी जोडाई, सुभ परिणाम, सुभ उपयोग, परधर्मणी वालास थाइ, बालास थाइ विना उपयोग थिर थाई नही, थिर विना ध्यान न प्रगटैं, ध्यान विना कर्मनो नास थाई नहीं, कर्म नासै रस, थितिनो नास थयौ, ते रस-थिति ना दलियां विरि गयां तिवारें आत्मानं स्वस्वभाव प्रगट्यो, ते दशविध जतीधर्मनी, प्रवचननी गाथा कहई छई खति-मद्दव-अज्जव-मुत्ति-तव-संजमे य बोधव्वे / सच्चं सोअं अकिंचणं च बभं च जइ धम्मो // - [उत्त.नव.आदि ] व्याख्या-एहवा दशविध जतीधर्मना पालणहार, बावीस परीसहना जीतणहार, अढारहजार सीलांग, रथना धोरी, पांच सुमत्ति, त्रिण गुपतिना धारक, क्रोध-मान-माया-लोभना जीतणहार, नवकल्पो विहार करें, बैतालीस दोष रहित आहारना लैणहार, भव्य जीवना तारक, निष्परिग्रही, भारंड पंषी इंम अप्रमती, पंषी पत्ता इव समुदाणी, भिक्षाना लेणहार, अरसजीवी, विरसजीवी, आत्मगवैषी, सुद्ध स्याद्वादमार्गप्ररूपक, गाथा अज्ञानतिमिरान्धानां, ज्ञानाम्जनशलाकया। नेत्रमुन्मीलितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः // 1 // व्याख्या-प्रज्ञानरूपीया तिमर ध्यान, ग्यांनरूपणी अंजनशिला कार्य करी, नैत्रमुन्मिलितं येन कहता नैन उघाड्यां छै, प्रकास कयों छे, एहवा गुरु,, अघटित नै घटित कर्या छै एहवा गुरुना चरणनै नमस्कार करीने हेतोपदेशग्रन्थनी व्याष्या(ख्या)न पद्धति कहिस्युं / अहो भवि जीवौ एकाग्र चित्ते सांभलज्योजी, पहिला अधिकारमैं श्री शांतिनाथ भगवां ननी स्तवना करै छई ।-गाथा सकलकुशलवल्लीपुष्करावर्त्तमेघो / दुरिततिमिरभानुः कल्पवृक्षोपमानः / भवजलनिधिपोतः सर्वसंपत्तिहेतुः / स भवतु सततं वः श्रयसे शान्तिनाथः //

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