Book Title: Mulachar Purvardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 7
________________ प्रधान सम्पादकीय (प्रथम संस्करण) द्वादश अधिकारों में विभक्त प्राकृत भाषा की १२४३ गाथाओं में निबद्ध 'मूलाचार' नामक ग्रन्थराज दिगम्बर आम्नाय में मुनिधर्म के प्रतिपादक शास्त्रों में प्राय: सर्वाधिक प्राचीन तथा सर्वोपरि प्रमाण मान्य किया जाता है । अपने समय में उपलब्ध प्रायः सम्पूर्ण जैन साहित्य का गंभीर आलोडन करने वाले आचार्य वीरसेन स्वामी ने षट्खण्डागम सिद्धान्त की अपनी सुप्रसिद्ध 'धवला' टीका (७८० ई०) में उक्त मूलाचार के उद्धरण 'आचारांग' नाम से देकर उसका आगमिक महत्त्व प्रदर्शित किया है। शिवार्य ( प्रथम शती ई०) कृत 'भगवती आराधना' की अपराजित सूरि विरचित विजयोदशा टीका (लगभग ७०० ई०) में मूलाचार के कतिपय उद्धरण प्राप्त हैं और यतिवृषभाचार्य (२री शती ई०) कृत 'तिलोयपण्णति' में भी मूलाचार का नामोल्लेख हुआ है । मूलाचार के सर्वप्रथम ज्ञात टीकाकार आचार्य वसुनन्दि सैद्धान्तिक (लगभग ११०० ई०) ने अपनी आचारवृत्ति नाम्नी संस्कृत टीका की उत्थानिका में घोषित किया है कि ग्रन्थकार श्री वट्टकेराचार्य ने गणधरदेव रचित श्रुत के आचारांग नामक प्रथम अंग का अल्प क्षमतावाले शिष्यों के हितार्थ बारह अधिकारों में उपसंहार करके उसे मूलाचार का रूप दिया है। इन अधिकारों के प्रतिपाद्य विषय हैं क्रमश:-- मूलगुण, बृहत्प्रत्याख्यान, संक्षेप प्रत्याख्यान, समयाचार, पंचाचार, पिण्डशुद्धि, षडावश्यक, द्वादशानुप्रेक्षा, अनगार भावना, समयसार, शीलगुणप्रस्तार और पर्याप्ति । वस्तुतः प्रथम अधिकार में निर्देशित मुनिपद के अट्ठाईस मूलगुणों का विस्तार ही शेष अधिकारों में किया गया है । ग्रन्थकर्ता आचार्य वट्टकेर के व्यक्तित्व, कृतित्व, स्थान, समयादि के विषय में स्वयं मूलाचार में, वसुनन्दिकृत आचारवृत्ति में, अथवा अन्यत्र भी कहीं कोई ज्ञातव्य प्राप्त नहीं होते। पं जुगल किशोर मुख्तार के अनुसार, मूलाचार को कितनो ही ऐसी पुरानी हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हैं जिनमें ग्रन्थकर्ता का नाम 'कुन्दकुन्दाचार्य' दिया हुआ है । डॉ० ए० एन० उपाध्ये को भी कर्नाटक आदि दक्षिण भारत में ऐसी कई प्रतियाँ देखने में आयी थीं जो कि उन्हें सर्वथा असली (नकली या जाली नहीं) प्रतीत हुईं। माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला बम्बई से मूलाचार की जो सटोक प्रति दो भागों में प्रकाशित हुई थी उसकी अन्त्य पुष्पिका - " इति मूलाचारविवृतौ द्वादशोऽध्यायः । कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत-मूलाचाराख्यविवृत्तिः । कृतिरियं वसुनन्दिनः श्रमणस्य' में भी मूलाचार को कुन्दकुन्द - प्रणीत घोषित किया गया है। इसके अतिरिक्त, भाषा-शैली, भाव आदि की दृष्टि से भी कुन्दकुन्द - साहित्य के साथ मूलाचार का अद्भुत साम्य लक्ष्य करके मुख्तार साहब की धारणा हुई कि वट्टकेराचार्य या वट्टेरकाचार्य संस्कृत शब्द 'प्रवर्त्तकाचार्य' का प्राकृत रूप हो सकता है, तथा वह आचार्य कुन्दकुन्द की एक उपयुक्त उपाधि या विरुद रहा हो सकता है, फलतः मूलाचार कुन्दकुन्द की ही कृति है । हमारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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