Book Title: Marankandika
Author(s): Amitgati Acharya, Jinmati Mata
Publisher: Nandlal Mangilal Jain Nagaland

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Page 6
________________ प्रस्तावना प्राचार्य प्रमितगति द्वितीय भगवान महावीर के निर्वारण के पश्चात् १६२ वर्ष तक अनुबद्ध केवलियों और श्रुत केवलियों की परम्परा रही । इसके पश्चात् वी. नि. सं. ६८३ तक ही श्रुतधराचार्य ( आचारांगधारी अथवा एकाध अंग के अंशधारी ही ) शेष रहे। इस प्रकार श्रुतज्ञान का क्रमिक हास होता रहने से सर्व प्रथम धरसेनाचार्य से ज्ञान प्राप्त कर पुष्पदन्त भूतबलो प्राचार्य ने श्रुत निबद्ध किया। इसके पश्चात् वि. सं. १०३६ तक अनेकों दिगम्बराचार्य हुए और उन्होंने जिनवाणी की प्रपूर्य सेवा की, अपनी अनेक रचनाओं से श्रुतदेवी का भण्डार समृद्ध किया । माथुर संघीय परम्परा में श्र ेष्ठ आचार्य वोरसेन, उनके शिष्य देवसेन, उनके शिष्य अमितगति प्रथम, उनके श्री शिष्य नाभिषेण, उनके शिष्य माधवसेन और माधवसेन के शिष्य श्रमितगति द्वितीय हुए हैं। इन्हीं श्रमितगति द्वितीय का समय राजा मुञ्ज का राज्यकाल है तथा वह वि० सं० १०३६ से १०७८ तक का काल है। इस प्रकार अमितगति द्वितीय का समय ११ वीं शताब्दि का उत्तरार्धं सिद्ध होता है। अमितगति द्वितीय के पश्चात् भी शान्तिषेण भ्रमरसेन, श्रीसेन, चन्द्रकीति, अमरकीर्ति आदि आचार्य इस संघ परम्परा में हुए हैं । धर्मं परीक्षा की प्रशस्ति में स्वयं श्रमितगति प्राचार्य ने अपनी गुर्वावनि वीरसेन से प्रारम्भ की तो उपासकाचार और सुभाषित रत्न संदोह में देवसेन से प्रारम्भ की है । आचार्य अमितगति द्वितीय एक समर्थ ग्रन्थकार थे। प्रापका संस्कृत भाषा पर असाधारण अधिकार था । उनकी कवित्व शक्ति अपूर्व थी। अमरकीर्ति ने अपनी षट्कर्मोपदेश को अन्तिम प्रशस्ति में आपको महामुनि मुनि चूड़ामणि आदि विशेषरणों से युक्त कहा है । प्राचार्य श्रमितगति की जितनी भी रचनाएं हैं उनसे उनकी प्राञ्जल रचना शेली प्रस्पष्ट अनु. भव में श्राती है । प्रसाद गुण युक्त मनोहारी सरल-सरस काव्य कौमुदी का पान करक हृदय मानन्द से गद्गद हो जाता है । उनकी सब रचनाएँ उद्बोधन प्रधान हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा मनुष्य को असत्प्रवृत्तियों की ओर से सावधान कर सत्प्रवृत्तियों को अपनाने की ही प्रेरणा की है। आचार्य श्री कर्म सिद्धान्त के भी विद्वान् थे । आचार्य अमितगति की कृतियों से उत्तर कालीन कृतियां भी प्रभावित हैं, अतः आचार्यश्री अपने समय के एक विशिष्ट ग्रंथकार थे। उन्होंने अपने बंदुष्य से जिनशासन का तथा संस्कृत वाङ्मय का मान बढ़ाया तथा सुरभारती के साहित्य भण्डार को समृद्ध किया था। अब १०८ आचार्यश्री की रचानाओं पर क्रमशः सविवरण प्रकाश डाला जाता है

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