Book Title: Main Swayam Bhagawan Hu
Author(s): Hukamchand Bharilla, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ १ मैं स्वयं भगवान हूँ जैनदर्शन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह कहता है कि सभी आत्मा स्वयं परमात्मा हैं । स्वभाव से तो सभी परमात्मा हैं ही; यदि अपने को जानें, पहिचानें और अपने में ही जम जायें, रम जायें तो प्रगटरूप से पर्याय में भी परमात्मा बन सकते हैं । ― - जब यह कहा जाता है तो लोगों के हृदय में एक प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है कि 'जब सभी परमात्मा हैं' तो 'परमात्मा बन सकते हैं ' - इसका क्या अर्थ है ? और यदि 'परमात्मा बन सकते हैं' यह बात सही है तो फिर 'परमात्मा हैं ' – इसका कोई अर्थ नहीं रह जाता है; क्योंकि बन सकना और होना - दोनों एकसाथ संभव नहीं हैं। भाई, इसमें असंभव तो कुछ भी नहीं है; पर ऊपर से देखने पर भगवान होने और हो सकने में कुछ विरोधाभास अवश्य प्रतीत होता है, किन्तु गहराई से विचार करने पर सब बात एकदम स्पष्ट हो जाती है । एक सेठ था और उसका पाँच वर्ष का एक इकलौता बेटा । बस दो ही प्राणी थे। जब सेठ का अन्तिम समय आ मैं स्वयं भगवान हूँ १

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70