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जवाब देना ही होगा। "
" तुम्हारे पिताजी मना कर गये थे।" " आखिर क्यों?"
"इसलिए कि बीस वर्ष पहले तुम्हें रुपये तो मिल नहीं सकते थे। पता चलने पर तुम रिक्शा भी न चला पाते और भूखों मर जाते।"
" पर उन्होंने ऐसा किया ही क्यों?"
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" इसलिए कि नाबालिगी की अवस्था में कहीं तुम यह सम्पत्ति बर्बाद न कर दो और फिर जीवनभर के लिए कंगाल हो जावो । समझदार हो जाने पर तुम्हें ब्याज सहित आठदश करोड़ रुपये मिल जावें और तुम आराम से रह सको । तुम्हारे पिताजी ने यह सब तुम्हारे हित में ही किया है। अतः उत्तेजना में समय खराब मत करो। आगे की सोचो।"
इसप्रकार सम्पत्ति सम्बन्धी सच्ची जानकारी और उस पर पूरा विश्वास जागृत हो जाने पर उस रिक्शेवाले युवक का मानस एकदम बदल जाता है, दरिद्रता के साथ का एकत्व टूट जाता है एवं 'मैं करोड़पति हूँ' - ऐसा गौरव का भाव जागृत हो जाता है, आजीविका की चिन्ता न मालूम कहाँ चली जाती है, चेहरे पर सम्पन्नता का भाव स्पष्ट झलकने लगता है।
इसीप्रकार शास्त्रों के पठन, प्रवचनों के श्रवण और
मैं स्वयं भगवान हूँ
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