________________ आत्मार्थी के लिए भी देखने-जानने योग्य तो सभी पदार्थ हैं; पर जमने-रमने योग्य निज भगवान आत्मा ही है, रति करने योग्य तो सुगति के कारणरूप स्वद्रव्य ही है, अपनापन स्थापित करने योग्य अपना आत्मा ही है, दुर्गति के कारणरूप परद्रव्य नहीं; इसीलिए मोक्षपाहुड़ में कहा गया है"परद्रव्य से हो दुर्गति निज द्रव्य से होती सुगति। यह जानकर रति करो निज में अर करो पर से विरति॥" __अपनी माँ को खोजने की जिसप्रकार की धुन-लगन उस बालक को थी, आत्मा की खोज को उसीप्रकार की धुन-लान आत्मार्थी को होना चाहिए। आत्नार्थी की दृष्टि में स्नद्रव्य अर्थात् निज भगवान आत्मा ही सदा ऊर्ध्वरूप से वर्तना चाहिए। गहरी और सच्ची लगन के विना जगत में कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता, फिर आत्मोपलब्धि भी गहरी और सच्ची लगन के बिना कैसे संभव है? सभो आत्मार्थी भाई परद्रव्य से विरक्त हो स्वद्रव्य की आराधना कर आत्मोपलब्धि करें और अनन्त सुखी होंइसी मंगल भावना से विराम लेता हूँ। 1. आचार्य कुन्दकुन्द : मोक्ष पाहुड गाथा 16 णमोकार महामंत्र : एक अनुशीलन