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" अरे भाई, जगत को पता हो तो बताये और ज्ञानी तो बताते ही रहते हैं, पर 'कौन सुनता है उनकी; काललब्धि आये बिना किसी का ध्यान ही नहीं जाता इस ओर । सुन भी लेते हैं तो इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देते हैं, ध्यान नहीं देते। समय से पूर्व बताने से किसी को कोई लाभ भी नहीं होता । अतः अब जाने भी दो पुरानी बातों को, आगे की सोचो। स्वयं के परमात्मस्वरूप को पहिचानो, स्वयं के परमात्मस्वरूप को जानो और स्वयं में समा जावो । सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है।
कहते-कहते गुरु स्वयं में समा जाते हैं और वह भव्यात्मा भी स्वयं में समा जाता है। जब उपयोग बाहर आता है तो उसके चेहरे पर अपूर्व शान्ति होती है, संसार की थकान पूर्णत: उतर चुकी होती है, पर्याय की पामरता का कोई चिह्न चेहरे पर नहीं होता, स्वभाव की सामर्थ्य का गौरव अवश्य झलकता है।
आत्मज्ञान, श्रद्धान एवं आंशिक लीनता से आरम्भ मुक्ति के. मार्ग पर आरूढ़ वह भव्यात्मा चक्रवर्ती की सम्पदा और इन्द्रों जैसे भोगों को भी तुच्छ समझने लगता है । कहा भी है
" चक्रवर्ती की सम्पदा अर इन्द्र सारिखे भोग । कागवीट सम गिनत हैं सम्यग्दृष्टि लोग ॥"
मैं स्वयं भगवान हूँ
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