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पिता के मित्र रिक्शेवाले युवक से यह बात रिक्शा स्टेण्ड पर ही कर रहे थे। उनकी यह सब बात रिक्शे पर बैठे-बैठे ही हो रही थी। इतने में एक सवारी ने आवाज दी
"ऐ रिक्शेवाले! स्टेशन चलेगा?" उसने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया-"नहीं।"
"क्यों? चलो न भाई, जरा जल्दी जाना है, दो रुपये की जगह पाँच रुपये ले लेना, पर चलो, जल्दी चलो।"
"नहीं; नहीं जाना, एक बार कह दिया न।" "कह दिया पर....."
उसकी बात जाने दो, अब मैं आपसे ही पूछता हूँ कि क्या वह अब भी सवारी ले जायेगा? यदि ले जायेगा तो कितने में? दस रुपये में, बीस रुपये में .......
क्या कहा, कितने ही रुपये दो, पर अब वह रिक्शा नहीं चलायेगा। 'क्यों?' "क्योंकि अब वह करोड़पति हो गया है।"
"अरे भाई, अभी तो मात्र पता ही चला है, अभी रुपये हाथ में कहाँ आये हैं?"
"कुछ भी हो, अब उससे रिक्शा नहीं चलेगा; क्योंकि करोड़पति रिक्शा नहीं चलाया करते।" इसीप्रकार जब किसी व्यक्ति को आत्मानुभवपूर्वक
मैं स्वयं भगवान हूँ